Wednesday, December 29, 2010

पंचम सूत्र- " ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास से प्राप्त आनंद सभी रत्नों के पाने से अधिक है"

प्रिय मित्रो अघोर उपनिषद् का पंचम सूत्र, चतुर्थ सूत्र का ही दुसरा भाग है। पूज्य सरकार की जिस वाणी से यह सूत्र निकला है वो इस तरह है।



" सुधर्मा सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप धन भी होता है, सुषुप्ता-धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, श्रद्धा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है। इन सभी तरह के धन के साथ अच्छा धनवान, ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास करता है.वह देव को खरीदता है। धन की क्रय शक्ति से संसार के सभी रत्नों के पाने का जो आनंद होता है, ब्रम्हचर्य के साथ एकांतवास की शक्ति से प्राप्त आनंद उससे कहीं अधिक होता है।"

चतुर्थ सूत्र में पूज्य अघोरेश्वर ने हमें एकांतवास की प्रेरणा दी और आगे बढ़कर सरकार ने कहा की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास , ब्रह्मचर्य - संसार के सुन्दरतम, रहस्यात्मक और अर्थपूर्ण शब्दों में से एक है। हिन्दू धर्म ने जगत को एक अमूल्य उपहार दिया इस शब्द के रूप में। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत विराट है, परन्तु सदियों से चले आ रहे इस शब्द के साथ के साथ अनगिनत परिभाषाएं जुडती चली गयीं और आज ब्रह्मचर्य अपने क्षुद्रतम अर्थ को प्राप्त हो गया है। आज ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यौन संबंधो का निषेध, विपरीत लिंगी के प्रति अनासक्ति, अनासक्ति ही नहीं घृणा। यह अर्थ कदापि हिन्दू धर्म का नहीं हो सकता , यह अर्थ बुद्ध और महावीर के बाद प्रचलन में आया है। भारतवर्ष की साधुताई और आध्यात्म को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर एक अलग ही रूप दे दिया बौद्ध और जैन धर्म ने। मैं बुद्ध या महावीर के ब्रह्मचर्य की बुराई नहीं कर रहा, उनका ब्रह्मचर्य भी अपने अर्थो में सहीं था, परन्तु वो उनके लिए सही था जो उनके मार्ग पर चलना चाहते थे। गौतम बुद्ध और महावीर भारतवर्ष के आध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टि देने वाले लोग हैं, परन्तु उनकी छाया और प्रभाव में हिन्दू धर्म के बहुत से सिद्धांतो ने अपने रूप को बदल लिया।

स्त्री जाती के प्रति अत्याचार और हेय दृष्टि का प्रतीक बना दिया ब्रह्मचर्य को। जिस देश के तंत्र विज्ञान ने स्त्री जाती को परमात्मा के रूप में इश्वर के रूप में स्वीकारा हो, उसी देश में स्त्री नरक का द्वार हो गयी, स्त्री की और देखना पाप हो गया, स्त्री को पशु कहा गया और ताडन के लायक कहा गया। महावीर ने कहा स्त्री मुक्त नहीं हो सकती, उसे मुक्त होने के लिए अगले जन्म में पुरुष के रूप में जन्म लेना होगा, बुद्ध ने शुरू में स्त्रियों को अपने संघ में जगह नहीं दी इसी भावना के कारण। जबकि ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था। आज तो स्तिथि यह है की वर्धमान महावीर जो विवाहित थे, उनके अनुयायी इस सच से इनकार करते हैं, जितना दूर कर सको स्त्री को उतना ही अच्छा। वाह रे तुम्हारा ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा। ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे। कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी, परन्तु आज की परिभाषा से चलेंगे तो विरोधाभास पर पहुंचेंगे, पर ब्रह्मचर्य की मूल भावना और अर्थ का अनुभव कर लेंगे, तो इस सत्य से आपका भी परिचय हो जाएगा।

मेरे विचार में ब्रह्मचर्य शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो इस शब्द में ही छुपा हुआ है, ब्रह्मचर्य- अर्थात ब्रह्म की चर्या। ब्रह्म की चर्या को अपने भीतर उतार लेना, अपनी चर्या को ब्रह्म की चर्या की तरह बना लेना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म की तरह आचरण, व्यवहार और क्रिया कलाप ही ब्रह्मचर्य है। शब्द कल्पद्रुम भी ऐसा ही कुछ कहता है, " ब्रह्मणे वेदार्थंचर्यं आचार्नियम"

अर्थात ब्रह्म सा आचरण ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म अर्थात एक जहां दो की संभावना नहीं होती, सारा जगत ब्रह्म है, जब सब कुछ वही एक है, तो फिर किसके प्रति आसक्ति और आकर्षण। निर्विकार, निराकार, निर्विशेष में भेद की बात ही कहाँ , और जब भेद ही नहीं तो कौन स्त्री और कौन पुरुष। जहाँ जीव और ब्रह्म में भेद नहीं रह जाता, उस अभेद अवस्था का नाम ब्रह्मचर्य है। उपनिषदों ने कहा है, " जगद्दृपद याप्ये तद्ब्रह्मैव प्रतिभासते , विद्या अविध्यादी भेद भावा अभावादी भेदतः " इस जगत के रूप में ब्रह्म ही दिखाई देता है, विद्या-अविद्या , भाव-अभाव आदि के भेद से जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह ब्रह्म ही है। इसी तरह ब्रह्मचारी का अर्थ होता है जो ब्रह्मचर्य का सेवन करे, " ब्रह्मणि वेदे चरती इती ब्रह्मचारी "। प्राचीन काल में कहा जाता था, जो वेदान्त और ब्रह्म चिंतन में लीन रहता है, वही ब्रह्मचारी है। प्राचीन काल में कहीं भी स्त्री संग का निषेध नहीं किया गया है। उपनिषदों में आया है, " कायेन वाचा मनसा स्त्रीणाम परिविवार्जनाम, ऋतो भार्याम तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते " अर्थात मन वाणी और शारीर से नारी प्रसंग का परित्याग तथा धर्म बुद्धि से ऋतू काल में ही स्त्री प्रसंग ब्रह्मचर्य है "। अगर आप गृहस्थ हैं तो रितुबद्ध होकर स्त्री संग करते हुए भी आप ब्रह्मचर्य को प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि इन अर्थो में तो ब्रह्मचर्य ग्रहस्थो को ही प्राप्त है। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य का कोई सम्बन्ध काम वासना अथवा शारीर के किसी भी स्थिति में नहीं था। बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।

मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का दुसरा अर्थ आज के प्रचलित अर्थ के आस पास ही है, परन्तु मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य बाहर से आरोपित ना होकर अन्दर से प्रस्फूटित होता है। हठयोग प्रदीपिका कहती है " मरणं बिन्दुपाते , जीवनं बिंदु धारणं " अर्थात वीर्य का पतन मृत्यु है , और वीर्य को धारण करना जीवन है। मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का जो दुसरा अर्थ है, उसका सम्बन्ध वीर्य के रक्षण, पोषण, उत्थान एवं ऊर्ध्वगमन से है। यहाँ भी मैं स्त्री का कोई निषेध नहीं देख पाटा हूँ। यह मेरे निजी विचार और अनुभव की बात है। वीर्यपात प्राकृतिक हो या दें किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए। परन्तु यह संभव नहीं दीखता क्योंकि आज का ब्रह्मचर्य थोपा हुआ है, आरोपित है, लादा गया है, आज ब्रह्मचर्य दमन से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। दमित काम वासना से उपजा ब्रह्मचर्य पानी का बुलबुला है, यह वो सूखी घास है, जिसे एक चिंगारी मिली और यह जल उठेगा। दमित भावनाएं, संवेदनाएं, विकृति बनकर बाहर आती हैं.ब्रह्मचर्य अज्ञात के मार्ग पर सरल सहज स्वाभाविक रूप से आपके भीतर प्रगट होता है, उसके लिए प्रयास करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्मचर्य भी अज्ञात के मार्ग में प्राप्त होने वाला धन है, जो आपको स्वतः मिलेगा स्वतः घटेगा स्वतः भीतर से प्रस्फूटित होगा। ब्रह्मचर्य वीर्य को धारण करना है, वीर्य का रक्षण करना है, वीर्य को अधोगति के विपरीत ऊर्ध्वगति देना है, अब यह अकेले हो या स्त्री के संग हो कोई अंतर नहीं पड़ता है। अघोर संतो में यह कहावत प्रचलित है,

" भग बिच लिंग लिंग बिच पारा, जो राखे सो गुरु हमारा "
अर्थात जो संभोगरत अवस्था में भी पारा(वीर्य) को राखे अर्थात धारण करे, उसे अधोगति अर्थात पतन की तरफ ना ले जाकर ऊर्ध्वगति की तरफ ले जाए याने उसे ऊपर चढ़ा दे , वही गुरु है, वही सच्चे अर्थो में ब्रह्मचारी है। यह तभी संभव होता है, जब क्रिया होती है परन्तु करता कर्म से सम्बंधित नहीं होता है। वो उस क्रिया में अनुपस्थित होता है। उपनिषदों में कहा गया है, " वासनामुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः" जब भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित ना हो, जब भोग भी वासना रहित हो , तब वैराग्य की स्थिति जानना चाहिए"। ब्रह्मचर्य उस स्थिति का नाम है, जो देह में होते हुए भी विदेही हैं, जिसकी देहबुद्धी ऊपर उठकर आत्मबुद्धि में रूपांतरित हो गयी है, जो शारीर से ऊपर उठकर आत्मा में रमण करने लगा हो, वो ब्रह्मचारी है। वीर्य का रक्षण और ऊर्ध्वगमन ब्रह्मचर्य की प्रथम स्थिति है, परन्तु फिर कहता हूँ जबरदस्ती नहीं, स्वतः। वीर्य जब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नीचे की तरफ यात्रा करता है, तो वो अधोगति कहलाती है, और जब साधक की साधना के फलस्वरूप जब वीर्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर अधोगति नहीं ऊर्ध्वगति की तरफ यात्रा करता तब ब्रह्मचर्य घटता है। यह संभव है, बिलकुल उसी तरह जैसे पानी शुन्य तापमान से नीचे जाता है तो गुरुत्वाकर्षण का बल पाकर ठोस बर्फ बन जाता है, पर जब पानी गरम होता है और तापमान शुन्य से ऊपर उठता है तो भाप बनकर ऊपर की तरफ उठने लगता है, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। जिस तरह पानी की निचे की तरफ यात्रा उसे ठोस बनाती है , गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ले आती है और ऊपर की तरफ यात्रा उसे भाप बनाकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त करती है, उसी तरह वीर्य की अधोगति मनुष्य को माया के प्रभाव में ले आती है , मृत्यु की तरफ और वीर्य की ऊर्ध्वगति उसे माया के प्रभाव से मुक्त करके जीवन अर्थात परमात्मा की तरफ बढ़ा देती है।
तंत्र मार्ग के पथिक मेरी इस बात का समर्थन करेंगे, की कुण्डलिनी जब जागती है, तो वासना का तूफ़ान हिलोरे मारता है, कुण्डलिनी मूलतः काम ऊर्जा ही है, अगर उसे ऊपर उठने का मार्ग नहीं मिलता है, तो वो दुसरे रूप में अपनी शक्ति को प्रवाहित कर देती है, सम्भोग की चरम अवस्था करीब करीब समाधि की तरह ही होती है, यह वो क्षण है जब आप अपनी काम ऊर्जा को ऊपर की तरफ गति दे सकते हैं। सामान्यतः अधोगति के फलस्वरूप वीर्यपतन हो जाता है, और काम ऊर्जा शांत हो जाती है। कुण्डलिनी जब ऊपर के चक्रों की तरफ आगे बढती है, तो वापस निचे उतर आती है। वासनाओं के प्रभाव में कुण्डलिनी बार बार निचे उतर आती है, परन्तु अगर कुण्डलिनी एक बार आज्ञा चक्र में प्रवेश कर जाए तो फिर वो वहां स्थिर हो जाती है और अगर साधक शक्ति दे तो ऊपर की तरफ बढ़ जाती है। आज्ञा चक्र में प्रवेश करते ही काम वासना विलीन हो जाती है, साधक काम से ऊपर उठ जाता है। तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।
जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है। आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है। बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है। यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है । वासना विदा हो जाती है आपके जीवन से, यहाँ से अधोगति की संभावना ख़त्म हो जाती है। यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।

अघोरेश्वर कह रहे हैं, इसलिए, की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास सबसे मूल्यवान है। ब्रह्मचर्य को धारण करेंगे तो धीरे धीरे आप एकांत को प्राप्त करेंगे, और ऐसी अवस्था में वास करना स्थिर हो जाना एकांतवास है, जो की आपका सबसे मूल्यवान धन है।
प्रेम तत्सत



Monday, December 27, 2010

चतुर्थ सूत्र - " एकांतवास सबसे अमूल्य धन है" "

पूज्य अघोरेश्वर भगवन रामजी को अघोर पथ के पथिक, भक्त , प्रेमी और शिष्य प्रेम से श्रद्धा से मालिक, सरकार बाबा और सरकार कहते हैं। आज का सूत्र सरकार के श्री मुख से निकल कर परिग्रह के रोग से ग्रस्त समाज के लिए संजीवनी बन कर प्रगट हुआ था। मानव जाती के इतिहास को उठा कर देखे तो हमें ज्ञात होता है, कि मनुष्य सदा से परिग्रह करता रहा है। परिग्रह अर्थात जमा करना, संग्रह करना, इकठ्ठा करना मनुष्य का मूलभूत स्वभाव है। मनुष्य अपने जन्म के साथ एक बंधन लेकर आता है, इच्छा या लोभ जिसके वशीभूत वो पाने कि कामना करता है, और यही कामना आगे परिग्रह का स्वरुप ले लेता है। परिग्रह सिर्फ धन का नहीं होता है, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा, कि किसी भी प्रकार का परिग्रह करके मनुष्य स्वयं को धनी मान लेता है। हर व्यक्ति के लिए धन कि परिभाषा अलग होती है। एक व्यक्ति रुपया पैसा जमा करता है, एक व्यक्ति हीरे जवाहरात जमा करता है। किसी को किताबे जमा करने का शौक होता है, कुछ लोग तो डाक टिकिट, पुराने सिक्के, पुराने सामान, माचिस के खाली डिब्बे और जाने क्या क्या जमा कर लेते हैं। प्राप्त प्राप्त आनंद सयाने लोग समझदार लोग विचारों का संग्रह कर लेते हैं, जिन्हें हम दार्शनिक कहते हैं। कुछ महात्मा होते हैं वो सिद्धियों का संग्रह कर लेते हैं, मान्त्रिक मंत्रो का संग्रह कर लेते हैं, गुरु शिष्यों का संग्रह कर लेते हैं, मठाधीश आश्रमों का संग्रह कर लेते हैं। अलग अलग लोगो को अलग अलग प्रकार कि चीज़े जमा करने का शौक होता है, इन सबके पीछे मूल रूप में परिग्रह कि भावना ही विद्यमान होती है। जो जमा हो रहा है ,वो उस व्यक्ति कि पूँजी है, धन है।गुरु के लिए शिष्य धन हैं, धन्ना सेठों के लिए हीरे जवाहरात धन हैं, नेता के लिए समर्थक धन हैं, दार्शनिको के लिए विचार धन हैं, मांत्रिको के लिए मन्त्र धन हैं, तांत्रिक के लिए सिद्धियाँ धन हैं, डाक टिकट का संग्रहकर्ता डाक टिकट को अपनी पूँजी अपना धन मानता है। परिग्रह बहुत मूल्यवान शब्द है जिसका हमने बहुत स्थूल अर्थ लिया है, सिर्फ रुपया पैसा हीरे मोती जमीन जायजाद के संग्रह को परिग्रह कहा है हमने। जिस तरह नशा कोई भी हो नशा होता होता है, चाहे शराब का ,चाहे चाय का, चाहे सत्संग का, चाहे भजन का । ठीक उसी तरह परिग्रह किसी भी वस्तु के संग्रह की कामना को कहा जाता है।

मनुष्य के धनी होने कि कामना के मूल में परिग्रह विद्यमान है। क्या जमा कर रहे हैं, इसका सवाल नहीं है, रद्दी जमा करने वालो में जिसके पास ज्यादा रद्दी है वो ज्यादा धनी है। धन से मनुष्य का पीछा कभी नहीं छूटता। क्योंकि जन्म से ही लोभ और कामना लेकर आये हैं हम। एक बहुत महान संत हुए हैं धनी धर्मदास, अब बताइये संत हैं जागृत पुरुष हैं, पर नाम के आगे धनी लगा है, पर बात सही है, हमारे पास बाहर का धन है उनके पास अन्दर का धन था। धर्मदास अपने अन्दर के खजाने को पा चुके थे , इसलिए धनी धर्मदास कहलाये। तुम धन के बिना मानते ही नहीं हो, सदियों से तुमको लालच देना पड़ता है, अच्छे की तरफ प्रेरित करने के लिए भी, परमात्मा की तरफ प्रेरित करने के लिए भी। किसी ने कहा प्रभु का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है, कोई कहता है तुम्हारे भीतर अनंत शक्ति का वास है , कोई कहता है, बाहरी धन को छोडो ,अन्दर के धन को पा लो। अजीब बात है, पर है सच, तुम्हे लालच दिखाना पड़ता है, बाहरी नहीं तो भीतरी धन का लालच। क्या करे तुम वो गधे हो, जिसके आगे अगर घास ना बाँधी जाए तो तुम एक कदम भी आगे ना बढ़ो। बिना स्वार्थ बिना लोभ के तुम कुछ करते ही नहीं, जहाँ स्वार्थ नहीं वहां का तुम पता भी रखना ज़रूरी नहीं समझते।इसलिए संतो ने बुद्धो ने यह तरकीब निकाली थी। उन्हें मालूम था तुम्हे सीधे अपरिग्रह में नहीं उतारा जा सकता है, तुम्हे एकदम से अपरिग्रह के लिए तैयार करना मुश्किल है, तो पहले तुम्हे भीतर के धन का लोभ दिया ताकि तुम बाहरी धन को भूल जाओ। संसार में महावीर ने सबसे ज्यादा अपरिग्रह पर जोर दिया, वैसे तो पंतांजलि ने भी अष्टांग योग के यम नियम प्रकरण में अपरिग्रह को स्थान दिया है, परन्तु महावीर ने इसे एक व्रत एक सूत्र एक साधना पद्धति एक तप के रूप में स्वीकार किया। पर विडम्बना है, की महावीर के अनुयायी ही सबसे ज्यादा परिग्रही बन के उभरे हैं, ना सिर्फ गृहस्थ बल्कि साधू भी जो खुद के पास कुछ भी नहीं रखते वो भी मंदिरों के नाम पर तीर्थो के नाम पर परिग्रह कर रहे हैं। क्या कर सकते हैं, संग्रह परिग्रह हमारे स्वभाव में हैं, मन रास्ते निकाल ही लेता है।बुद्ध पुरुषों को पता था अघोरेश्वर जानते थे, तुम्हारा यह स्वभाव तो बदलने से रहा, इसकी तो बात ही करना बेकार है। धन की लालसा छोड़ नहीं सकते तुम। तब बुद्धो ने, सिद्धो ने, अरिहंतो ने, अघोरेश्वर ने तुम्हे उस धन का पता दिया उस धन की खबर दी जो तुम्हारे भीतर है।



पूज्य सरकार कहते हैं, " सुधर्मा, सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप-धन भी होता है, सुषुप्ता-धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, श्रद्धा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है।

सरकार ने धन संचय से मना नहीं किया, पर किस प्रकार का धन संचय करना और किस प्रकार से धन संचय करना है, यह भी बताया जिसके पीछे भावना संचय से मुक्ति की थी। सर्वोत्तम धन और सर्वोत्तम धनवान के बारे में भी समझा दिया। वो जानते थे, जैसे जैसे ज्यादा मूल्य की वस्तु तुम्हे मिलने लगेगी तुम कम मूल्य की वस्तु का त्याग कर दोगे। यही स्वभाव है तुम्हारा, जो मिला उसका मूल्य खो गया तुम्हारे लिए, ज्यादा मूल्यवान मिला तो कम मूल्यवान का त्याग कर दिया तुमने। इसलिए तुम्हे तुम्हारी भाषा में समझाना पड़ता है। सरकार ने कहा एकांतवास सबसे मूल्यवान धन है, सबसे मूल्यवान की खोज में जाओगे तो कम मूल्यवान के प्रति मोह त्यागना ही होगा। अपनी झोली खाली करनी पड़ेगी तुम्हे । एक व्यक्ति ने सुना था की दूर पहाडो में ताम्बे की खान है। वो निकला झोली उठाकर की थोडा इकठ्ठा करके ले आऊंगा। वो वहां पहुंचा और ताम्बे से झोली भर ली तभी एक दुसरा व्यक्ति वहां पहुंचा और बोला अरे भाई आगे और जाने पर चांदी की खान मिलेगी। उसने जो ताम्बा जमा किया था, वो झोली से निकाल कर फेंका क्योंकि थोडा बेवकूफ था, तुम्हारी तरह होता तो पहले चांदी की खान पे पहुँचता और जब निश्चित कर लेता की चांदी है, तब वो झोली खाली करके चांदी भर लेता। पर कम पढ़ा लिखा था , झोली खाली कर दी वहीँ, और याद रखना ऐसे ही कम पढ़े लिखे लोग ही कुछ पाते हैं जीवन में, आध्यात्म ममें उतरना है तो पहले खुद के कचरा ज्ञान को खाली करना पड़ेगा। खैर वो आगे बाधा तो चांदी की खान मिली , फिर वही किया फिर एक व्यक्ति मिला और बताया की आगे सोने की खान है, और इस तरह वो झोली खाली करता गया और भरता गया, जितना आगे जाता उतना मूल्यवान धन मिलते जाता। सार इतना ही है की झोली खाली करनी पड़ेगी हर बार, जो पाया उस से मुक्त होना पड़ेगा हर बार तब आगे की यात्रा हो सकेगी। सारे साधक स्वीकारते हैं की साधना मार्ग में तरह तरह के प्रलोभन हैं, कथाये कहती हैं, की जब कोई महान तपस्वी कड़ी तपस्या करता था तो इन्द्र का आसन डोलने लगता था, और इन्द्र अप्सराये भेजता था साधना भंग करने। आज भी यह होता है, कथा अर्थपूर्ण है, सच है पर सांकेतिक। इंद्र का अर्थ है इन्द्रियों सहित मन, और अप्सराओं का अर्थ है , विषय भोग का भ्रम। जब आप अपने भीतर प्रवेश करने लगते हैं, जब आप केंद्र की और यात्रा आरम्भ करते हैं, तो इन्द्रिया सिकुड़ने लगती हैं, सिमटने लगती हैं, तब मन की घबडाहट शुरू होती है, उसका आसन डोलने लगता है, की उसके सिपाही यह इन्द्रियाँ भी केंद्र की और सिमट रही हैं। तब मन विषयो का एक भ्रम जाल तैयार करता है, इन्द्रियों को वापस लाने और आप उस भ्रम का शिकार हो जाते हैं। मन आपके समक्ष एक झूठा दर्शन झूठा आत्म-साक्षात्कार भी प्रगट कर देता है,ताकि आप अपनी यात्रा रोक दे। मन विस्तार का प्रेमी है, मन चलायमान है, वो स्थिर होना जानता ही नहीं, उसे ठहराव पसंद नहीं, और तुम्हारा मूल स्वभाव है स्थिरता। यही इन्द्रियों सहित मन कहलाता है ,इंद्र, और मन द्वारा प्रक्षेपित विषय का भ्रम अप्सराएं है। साधना पथ में सिद्धिया भी हैं , पर अगर आप आत्म-साक्षात्कार की यात्रा पे हैं, तो सिद्धियों को भी छोड़ना होगा। तभी आगे की यात्रा संभव है, सिर्फ आपकी जरुरत है, इस मार्ग में और किसी दूसरी चीज़ की नहीं, खुद को खाली करते जाइए तभी आप इस मार्ग के अधिकारी होंगे। इसी तरह मनुष्य को उसके भीतर की यात्रा की और ले जाने के लिए उसे भीतर के धन की झलक दिखानी पड़ती है।

पूज्य सरकार कहते हैं, " सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है" एकांतवास का प्रचलित अर्थ होता है, अकेले निवास करना, जहाँ दुसरा कोई ना हो। पर यह संभव ही नहीं, जहाँ चले जाओ खुद को कभी अकेला कभी नहीं कर सकते हो। एकांत का एक और अर्थ होता है, एक का अंत। एक बार की बात है, मैं अपने गुरुदेव के पास गया , वो अकेले बैठे थे तो मैंने सोचा उनके सानिध्य का लाभ ले लूँ। मैंने जाते ही कहा बाबा आप अकेले बैठे हैं, तो उन्होंने कहा' अभी तक तो अपने साथ था तुम्हारे आने से अब अकेला हो गया हूँ"। आज उस बात का अर्थ समझ में आता है, जब हम किसी और के साथ नहीं होते तब हम अपने साथ होते हैं, या परमात्मा के साथ होते हैं। आप कहीं भी चले जाइए परमात्मा सदा विद्यमान है वो घट घट में है, आपमें भी वही ज्योति विद्यमान होती है।तो जब भी आप अकेले होंगे तो दो हो जायेंगे, एक मैं और एक वो, अगर मैं को पाना है , तो वो का अंत आवश्यक है, और अगर वो को पाना है तो मैं का अंत करना पड़ेगा । दोनों में से किसी एक का अंत आवश्यक है, तभी एकांत घटेगा और इस अवस्था में स्थिर हो जाना ही एकांतवास है। इसे थोडा ठीक से समझे, ध्यान के मार्ग पे चलना है, ज्ञान के मार्ग पे चलना है, तो "मैं" को जीना होगा, इस मार्ग में "वो" याने परमात्मा का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। अगर भक्ति के मार्ग पे चलना है, अगर प्रेम के मार्ग पे चलना है, तो फिर "मैं" को भूलना होगा मैं का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। भक्ति में वो ही वो होता है और ज्ञान में मैं ही मैं होता है। ध्यान में मैं ही मैं और प्रेम में वो ही वो। पर एक गज़ब बात है एक से चलोगे तो दुसरे तक पहुँच जाओगे, ज्ञान से चलोगे तो भक्ति में उतर जाओगे और भक्ति से चलोगे तो ज्ञान प्रगट हो जाएगा।दुसरे शब्दों में कहें तो ध्यान से चलोगे तो प्रेम में उतर जाओगे और प्रेम से चलोगे तो ध्यान में प्रवेश कर जाओगे। यह अजब गोरखधंधा है, अलग अलग मार्ग हैं पर आकर एक दुसरे से मिल जाते हैं। और मिले भी क्यों नहीं जब मंजिल एक होती है तो रास्ते अक्सर टकरा जाते हैं। मंजिल पार पहुँच कर कौन रास्तो की खबर रखता कौन मील के पत्थरो का हिसाब रखता है। इस एकांतवास के लिए किसी एक का अंत तो करना ही पड़ेगा , पर इस दो तक पहुँचने के लिए स्थूल एकांतवास में जाना होगा, आशय यह है की, सबको भूला कर खुद के साथ रहना होगा। आपको कहीं जंगल जाने की जरूरत नहीं है, सरकार तुम्हे घर से भागने भी नहीं कह रहे हैं, तुम्हे पलायन करके हिमालय जाने भी नहीं कहते, वो तो बस कहते हैं की इस दुनिया में रहते हुए बस ज़रा सा भीतर सरक जाओ अपने। आँखें बंद करो बाहरी तमाशा ख़त्म, कान बंद तो बाहरी बातें ख़त्म, जहाँ हो वहीँ एकांतवास घट सकता है।बस अपने भीतर सरक जाओ , पूरी दुनिया को भूल कर अपने साथ हो जाओ, खुद की सुनो खुद से बोलो, खुल ही बांधो खुद ही खोलो । जहाँ हो बस वहीँ पर ठहर जाओ, जब अपने साथ रहना शुरू कर दोगे, तब एक नए तमाशे एक नयी दुनिया से साक्षात्कार होगाअभी तक तो दुनिया की भीड़ थी , दुनिया का शोर था, दुनिया के विषय थे, भीतर उतारोगे तो उस से ज्यादा शोर सुनाई देगा, उस से ज्यादा भीड़ दिखाई देगी, विषय भोग तैयार मिलेंगे। भीतर के दरवाजे पर बैठा मन रुपी इंद्र प्रवेश करने नहीं देगा। विचारों की भीड़ तुम्हारा स्वागत करेगी, अतीत की आवाज़े गीत बनकर अभिनन्दन करेंगी, मन विषय भोग का प्रक्षेपण करेगा, अप्सराएं सिद्धियाँ, भविष्य के संकेत जाने क्या क्या नज़र आएगा। भीतर जाकर भी जूझना होगा एकांत को पाने के लिए.तुम्हारे यह गेरुए वस्त्र धारी तथाकथित हिमालय के योगी यह दिगंबर साधू आँखे बंद करके मन के प्रक्षेपण को ही सबकुछ मानकर जी रहे होते हैं। हमें सिर्फ दीखता है की वो जंगल में हिमालय में पहाडो में अकेले जी रहे हैं। अरे मेरे भाई जिसे अकेले जीना आ गया , जिसने एकांत का रहस्य समझ लिया वो भीड़ में भी अकेलेपन को जीना जानता है। क्या हिमालय क्या दुनिया सब एक हैं, ज़रा सा भीतर सरकने की ही तो देर हैं। जिसने यह सरकने की कला जान ली है, उसे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। एकांतवास सबसे मूल्यवान है, जब सबकुछ भूल कर अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे परिवर्तन आरम्भ होगा। जब अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे शनैः शनैः पहले बाहर का शोर तुम्हे प्रभावित करना बंद कर देगा, फिर धीरे धीरे भीतर का शोर भी बंद हो जाएगा, तब विचार शुन्यता की स्थिति पर पहुंचोगे और प्रवेश कर जाओगे वास्तविक एकांत में और बस वहीँ स्थिर हो जाना , उस अवस्था में ठहर जाना उस पल के साथ रहना ही एकांतवास है।
अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो : परम
प्रेम तत्सत

Friday, December 24, 2010

अपनी बात : मौन में वार्तालाप

आँखें बंद हो गई हमारी
तम में चमकी छवि तुम्हारी
कान बंद थे ह्रदय मौन था
करता अंतर में कोलाहल
नाद रूप में जाने कौन था।
छु कर देखो प्राण भ्रमण को
जी कर देखो उस स्पंदन को
अनहद बाजा सुनते जाओ
भूल जाओ जग के क्रंदन को।
प्रेम तत्सत

Wednesday, December 22, 2010

अपनी बात : गुरु कृपा केवलम

विष की बूटी जो पीते हैं, वो पाते अमृत खान हैं
गुरु पे जीते गुरु पे मरते, वो पाते भगवान् हैं।
ऊपर वाला कुछ नहीं होता, निचे का कर ध्यान रे
अपने अंतरतम में खोजो , मिल जाए भगवान् रे।
गुरु आदि गुरु मध्य है, गुरु को ही अंत जान रे
गुरु के अंतर गुरु के मंदिर, मिल जाएगा ज्ञान रे।
गुरु शक्ति गुरु ब्रम्ह है, गुरु ही शक्तिमान है
गुरु ही रचता खेला सारा, गुरु का ही ये विधान है।
गुरु नहीं होता हाड़ चाम का, बात पते की जान रे
तेरे अन्दर ही रहता है, कहलाता है प्राण रे।
तू उसका है वो तेरा है, तू उसकी संतान है
तुझको तेरी निज सत्ता का, करवाता वो ज्ञान है।
गुरु से निकला गुरु से उपजा, फिर गुरु में मिल जाना है
जिसने भी इश्वर को जाना, गुरु रूप में ही जाना है।
वो प्रगट ब्रम्ह कहलाता है, वो दबे पाँव से आता है
तेरे अंतर तम में वो, विश्वास की जोत जलाता है।
तुझको तुझसे मिलवाता है, तेरा दर्शन करवाता है
कहते हैं सब लोग इसलिए, वो तेरा बाप कहलाता है।
प्रेम तत्सत

तृतीय सूत्र - " गुरु गुरु बनाता है, चेला नहीं "

तृतीय सूत्र
पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु के इस सूत्र पर बात करने हेतु , आज बुद्ध के जीवन की कथा से आरम्भ करता हूँ। बुद्ध अर्थात सिद्धार्थ आचार्य आलार कालाम से आरंभिक ध्यान - साधना की दीक्षा प्राप्त करने के बाद अपनी यात्रा में आगे बढे। आचार्य आलार कलाम ने उन्हें तीन बातें कही, पहली बात " असीम आकाश और असीम चेतना " में प्रवेश करो। " न भाव बोध ना भाव बोध्हीनता " " अपदार्थ्ता की अवस्था प्राप्त करो" इसके पूर्व आचार्य उद्रक रामपुतत ने भी उन्हें अकिंचन पायतन नाम की अरूप समाधी के लिए कहा था, जो निर्विचार अवस्था है। परन्तु सिद्धार्थ गौतम को यह महसूस हो गया था, की यह भी अंत नहीं है, बार बार झलक दिखती है। बुद्धत्व क़ि प्राप्ति क़ि पूर्वसंध्या में सिद्धार्थ बहुत कमज़ोर हो चुके थे, कपडे तार तार थे, उन्होंने शमशान में एक स्त्री के शव पर रखे कपडे को धारण किया, और पेड़ के निचे बैठ गए, बस अब कुछ नहीं करना, कुछ , कोई इच्छा नहीं, सुजाता ने खीर दी जो उनका रात्रि भोजन हुआ, और गौतम सो गए। जब प्रातः वो जागे तो भोर का तारा दिख रहा था, और उसे देखते देखते गौतम बुद्धत्व को प्राप्त हो गए। एक असीम आनंद से गौतम भर गए। कथा कहती है, क़ि सुजाता ने जब उन्हें देखा तो कहा , क़ि सन्यासी आज तुम्हारे चेहरे पर ज्ञान का अपूर्व तेज दिख रहा है। उसने कहा क़ि मागधी बोली में ज्ञान को बुध कहते है, तो ग्यानी को बुद्ध कहना चाहिए, गौतम ने यह संबोधन स्वीकार कर लिया। अब अपनी बात पर लौटूं , गौतम बुद्ध के भीतर जब बुद्धत्व प्रकट हुआ, तो वो एक बात से बड़े विस्मित हुए अचंभित हुए । उन्होंने कहा " समस्त जड़ चेतन पशु प्राणियों के अंतर में बुद्धत्व के बीज पड़े हुए है, फिर भी हजारो जन्मो से यह चक्र समाप्त नहीं हुआ"। गौतम ने देखा, उनके उनके भीतर ही नहीं बल्कि सृष्टि के कण कण में सभी जड़ चेतन पशु पक्षी पेड़ मनुष्य सभी में बुद्धत्व प्रकट हो गया है। सात दिनों तक मौन रहकर बुद्ध यह अनुभव करते आनंद क़ि अवस्था में रहे। उससे भी बड़ा अचम्भा तब हुआ, जब देवताओं ने अर्थात उच्च चेतनाओं ने उन्हें कहा "मौन कब तक रहेंगे, कुछ बोलिए संसार का मार्गदर्शन करिए" बुद्ध बड़े अचंभित हुए, किसे मार्गदर्शन देना है, किसे ज्ञान देना है, यहाँ तो सभी बुध्हत्व को उपलब्ध है। जो में हूँ, वही सब है, और जो सब है, वही मैं हूँ।, पर देवताओं के बार बार निवेदन करने पर बुद्ध ने अपने भीतर करूणा को प्रकट होते देखा। इस करूणा के वशीभूत बुद्ध ने देखा तो पाया, क़ि जो मैं कह रहा हूँ, वो तो सत्य है, मैं जानता हूँ, क़ि सब बुद्ध है, पर वो मूर्च्छा में पड़े है, वो नहीं जानते वो बुद्ध है, उनके भीतर भी बुद्धत्व के बीज है.उनके अन्दर बीज है , याने वृक्ष हो जाने क़ि सम्भावना विद्यमान हैं। अड़चन की बात, बस खबर देनी है उन लोगो को उनके बुद्धत्व की, पर लोग अपने बुद्धत्व की खबर का मखौल उड़ायेंगे, मसखरी समझेंगे, तो बुद्ध ने अपने बुद्धत्व क़ि खबर दी, स्वीकार किया लोगो ने। बुद्ध क़ि यात्रा आरम्भ हो गयी। अपने प्रथम सम्भोधन में बुद्ध ने एक चरवाहे , सुजाता और कुछ बच्चो को ज्ञान दिया। तत्पश्चात वो ढूँढने निकले उन पांच शिष्यों को जो उनकी विकट साधना और उसके बाद सुजाता द्वारा भोजन लेने पर, उन्हें छोड़कर चले गए थे। उन्हें लगा था की गौतम पथभ्रष्ट हो गए हैं। बुद्ध के लिए शिष्य बनाने का कोई प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि किसे सिखायेंगे, पर उन्होंने जो पाया उसे बांटने के लिए और जिन्हें ज्ञान पाना है , उन लोगो को सीखने की दृष्टि से स्वयं को शिष्य कहना उचित है,। बुद्ध के लिए मुश्किल की बात है, क्या कहना और किसे कहना क्योंकि जिन्हें कहना है उनके भीतर भी बुद्धत्व ही देखा था गौतम ने, परमात्मा का दर्शन किया था। वो उनके भीतर भी उसी परम ज्योति का दर्शन कर पा रहे थे जिसका उन लोगो को भान नहीं था.कबीर ने भी इस बात को अपने तरीके से कहा और इस बात की पुष्टि की। " ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग, तेरा साईं तुझमे है, जाग सके तो जाग " इसलिए जब पूज्य अघोरेश्वर कहते हैं , गुरु बनाता है चेला नहीं " तो लोग आश्चर्य से भर जाते हैं। बहुत हिमात भरा सूत्र है, क्योंकि सदियों से परंपरा रही है गुरु-शिष्य की और यह सूत्र विपरीत है उस परंपरा के। सत्य हमेशा से रूढ़ियों और परम्पराओं पे चोट करता रहा है। भारतवर्ष में सैकड़ों पंथ है, हज़ारों सतगुरु ,गुरु, सिद्ध गुरु जाने क्या क्या हैं, उनके लाखों शिष्य हैं। ऐसे में अघोरेश्वर का यह कहना की मैं गुरु बनाता हूँ चेला नहीं, और साथ ही सावधान कर रहे की गुरु गुरु ही बनाएगा, यहाँ सोना बनाने का सवाल नहीं यहाँ तो पारस बनता है जो अपने करीब आने वाले लोहे को परिवर्तित कर दे। रूपांतरण की शक्ति जब तक पैदा ना हो तो किस बात का बुद्धत्व , यह सूत्र उन सारे तथाकथित गुरुओ के विरोध में था जो पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक के जाल में लोगो को उलझा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। बुद्ध ने कहा किसे ज्ञान दूँ , किसे सिखाऊं यहाँ तो सब बुद्ध हैं। अघोरेश्वर भी यही कह रहे हैं, बुद्ध्पुरुष बुद्ध्पुरुष का ही निर्माण करेंगे, शेर से शेर ही जन्म लेगा वहां मेमने की कल्पना मत करिए। गुरु शिष्य नहीं बनाता, वो उस आवरण को उतार फेंकता है, जो तुम्हारी गुरुता को तुम्हारे स्वरुप को तुम्हारे बुद्धत्व को ढांके हुए है। अघोरेश्वर जैसे बुद्ध पुरुष ही यह कह सकते हैं, की तुम मुझसे भिन्न नहीं हो। एक छोटी सी कथा से समझाने का प्रयास करता हूँ, दो मित्र रात्री में सोने जाते हैं, सुबह जल्दी उठकर उन्हें भोर के सूर्य का दर्शन करना है। वो दोनों महा आलसी थे, उनमे से किसी एक ने सुन रखा था की सुबह का सूर्य बड़ा सुन्दर दीखता है और उसको देखा जा सकता है , अगर सुबह जल्दी जाग जाए तो। दोनों मित्रो में तय होता है की जो पहले जागेगा वो दुसरे को जगा देगा। एक मित्र उठता है और सूर्य को देखता है और दुसरे के पास आता है, उसको सोता देखकर वो हंसने लगता है। बस ऐसा ही कुछ होता है अज्ञात की राह में, जो देख लेता है वो लौट कर आता है और संसार को देख कर हंसने लगता है, की मैं अब तक यहाँ था। क्या कहेंगे इसे, एक जाग गया और देख लिया, अब जो जागा हुआ है वो सोये हुए को जगायेगा, पर इसके लिए भी जागने की इच्छा तो हो, कुछ तो सोये हैं उन्हें जगा लेंगे पर कुछ जो सोने का नाटक कर रहे हैं उनको जगाना मुश्किल है, जागने के लिए नींद में होना जरुरी है, नींद का अभिनय करने वालो के नसीब में जागना कहाँ, और कुछ तो दो कदम आगे हैं, वो सोने का नहीं जागने का अभिनय करते हैं और इतना सटीक अभिनय के आप विस्मित हो जायेंगे तो बात सिर्फ इतनी है की एक सोया हुआ है एक जागा हुआ है, सोये हुए में संभावना है जागने की, वो भी जागेगा जब उसे कोई बतायेगा की मैंने देखा है तुम भी देख सकते अघोरेश्वर। अघोरेश्वर कह रहे हैं, तुम मुझसे भिन्न नहीं हो, सतगुरु वही है जो शिष्य को अपना ही अंग समझता है, अपना ही रत्न समझता है। अघोरेश्वर कहते हैं, मैं परमात्मा हूँ, तो तुम भी परमात्मा हो। फर्क इतना है की मैं जाग गया, जान गया, अपने बुद्धत्व को अपने स्वरुप को, और तुम अभी जागे नहीं हो नींद में हो। जागने के बाद बुद्धत्व रुपी सूर्य को देखने के बाद बुद्ध पुरुष भी वैसे ही हँसते हैं जैसे वो जागा हुआ मित्र अपने सोये हुए मित्र को देख कर हंसता है। अघोरेश्वर कह रहे हैं, मैं जाग गया तो जान गया, तुम अभी सो रहे हो, तुम जब जागोगे तो तुम भी जान जाओगे। नींद में होने से कोई पात्रता में कमी नहीं आ गयी बल्कि नींद में होना तो संभावना है जागने की। फर्क सिर्फ इतना है,की एक जागा हुआ बुद्ध है और एक सोया हुआ बुद्ध है। दोनों की भगवत्ता में सिर्फ इतना ही अंतर है। एक पुरानी कथा है, बड़ी ही अर्थपूर्ण है, एक शेर का बच्चा अपने झुण्ड से बिछड़ कर हिरनों के झुण्ड से जा मिला। हिरनों ने ही उसका लालन पोषण किया, उनके साथ ही रहकर वो जवान हुआ, उसके हाव भाव, रहन सहन, खान पान यहाँ तक की उसका वयवहार भी उनके जैसा हो गया, उस शेर का आचरण भी हिरनों की तरह हो गया था। एक दिन हिरनों के झुण्ड का सामना शेरो के एक झुण्ड से हो गया, सारे हिरन भय के मारे भाग गए , युवा शेर जो था वो एक कोने में दुबक गया, वो मारे भय के काप रहा था, अब शेरो को बड़ा अजीब लगा की यह हमें देख कर डर रहा है, उसको समझाने का बहुत प्रयास हुआ पर वो माने ही नहीं, आखिर झुण्ड के एक बूढ़े शेर ने उसे बुलाकर पानी में उसका प्रतिबिम्ब दिखाया, तब उस युवा शेर को अपने निज स्वरुप का एहसास हुआ। हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही है। अघोरेश्वर कह रहे हैं, गुरु गुरु बनाता है, जो जागा हुआ है वही तुम्हे जगायेगा, जो सोया पड़ा है अगर वो तुम्हे आश्वासन भी दे तो व्यर्थ है। अघोरेश्वर महाप्रभु जैसे बुद्ध्पुरुष ही यह घोषणा कर सकते हैं,की " मैं ही परमात्मा हूँ" बिना संकोच कह देते हैं, पर दुसरे ही क्षण दूसरी घोषणा करते हैं, " तुम सब परमात्मा हो " अहंकार रहित चित्त से ही ऐसी घोषणा संभव होती है। निजता या प्रभुता दो ही चीज़े हैं आध्यात्म में, निजता ध्यान का ध्येय है और प्रभुता भक्ति का, और दोनों ही चीज़े अहंकार रहित चित्त से अनुभव में आती है। अहंकार रहित चित्त ही ध्यान का ध्येय है। जागे हुए लोगो को सिर्फ एक ही चीज़ दिखती है, या तो वो या तो मैं, कहीं दो नहीं कभी दो नहीं, जब दिखेगा एक ही दिखेगा। अहंकार को जीने के लिए स्वयं के अतिरिक्त एक और सत्ता की आवश्यकता होती है, जिसके समक्ष बोला जा सके जिसे दिखाया जा सके, अपनी प्रभुता। पर यहाँ तो सब प्रभु हैं, फिर कैसी प्रभुता किसकी प्रभुता किसपे प्रभुता। बहुत हिम्मत चाहिए, इस संसार में ऐसा कहने के लिए, सत्य को संसार पचा नहीं सकता। अघोरेश्वर सहजता से कह देते हैं, हम शिष्य नहीं बनाते हम तो गुरु बनाते हैं, हम वो पारस नहीं जो लोहे को सोना कर दें, हम तो वो हैं जो लोहे को पारस कर दे। अघोरेश्वर ही कह सकते हैं ऐसा, निरहंकारी और करूणा सहित वाक्य। जागा हुआ बुद्ध सोये हुए बुद्ध को जगा रहा है। सिर्फ इतना ही उपक्रम करना होता है। पर यहाँ तो सोये हुए लोग, बल्कि मूर्छित लोग बड़े बड़े मंचो से आपको जगाने का काम कर रहे हैं। जो खुद सोये हैं वो ही अहंकार से भरे हुए हैं, इन्ही अहंकारी लोगो ने भगवान् का जाल खड़ा किया है, आस्तिक अहंकार से भरा होता है, धार्मिक निरहंकारी होता है। नास्तिक में भी अहंकार नहीं होता, बेचारा किसका नाम लेकर अहंकार करे आप और तथाकथित संत भगवान् की आड़ में अपने अहंकार को पुष्ट कर रहे हैं। निरहंकारी चित्त ही भगवत्ता और भगवान् का स्वाद ले सकता है। आज बस इतना ही फिर कभी। प्रेम तत्सत

Friday, December 17, 2010

मेरी बात ध्यान के आलोक में.

प्रिय मित्रों ,
क्षमाप्रार्थी हूँ ,कि इतने दिनों तक अनुपस्थित रहा। एक पारिवारिक कार्यक्रम में व्यस्त होने कि वजह से कुछ लिख नहीं पा रहा था। अब पुनः आरम्भ कर रहा हूँ । कुछ मित्रों ने ध्यान के विषय में जानने की अभीप्सा प्रगत की है। ध्यान के विषय में कुछ कहा जाना बहुत मुश्किल बात है, हाँ ध्यान में ले जाया जा सकता है। आपको प्रवेश दिलाया जा सकता है, आपको ध्यान में उतारा जा सकता है। ध्यान आज तक एक कृत्य की तरह आप सबके सामने लाया जाता रहा है। वस्तुतः ध्यान कृत्य है ही नहीं। ध्यान करने की चीज़ नहीं है, ध्यान कोई क्रिया नहीं है। ध्यान अक्रिया का दुसरा नाम है, कुछ करना सिखाया जा सकता है, पर कुछ ना करना सिखाना बहुत मुश्किल बात है, और ध्यान कुछ ना करने की यात्रा । ध्यान एक अवस्था है, एक स्थिति है, एक पड़ाव है। ध्यान के नाम पर जो कुछ कूड़ा करकट आज उपलब्ध है वो आपको भरमाने के साधन हैं। ध्यान की तैयारी की जा सकती है , पर वो सब ध्यान नहीं है। ध्यान मानो एक पाहुना है जिसके स्वागत के लिए आप कुछ मूलभूत तैयारी करते हैं। ध्यान बिलकुल एक खेती है जैसे एक किसान धरती को हल चलाकर साफ़ करता है, बीज डालकर इंतज़ार करता है फसल होने का, बिलकुल ऐसा ही है ध्यान। आपको वैसा वातावरण देना होता है और एक दिन ध्यान आपमें उतर जाता है। आप ध्यान को उपलब्ध कर लेते हैं। ध्यान करने की चीज़ नहीं है, ध्यान स्वतः होगा बस आप एकाग्र निर्विचार होने का प्रयास करते जाइए बस। निर्विचार शुन्य अवस्था का नाम ध्यान है। जब सारे विचार विलीन हो जाएँ , सारा आवागमन बंद हो जाए , तब ध्यान की यात्रा आरम्भ होती है। बचपन से हमें सिखाया जाता है ध्यान दो , मतलब किसी भी चीज़ के प्रति सजग हो जाओ, सजगता ध्यान की पहली सीढ़ी है। सजगता जब साक्षी भाव सहित होने लगेगी तो ध्यान की तरफ आपका दुसरा कदम बढेगा। साक्षी भाव का उदय तब होगा जब विचार विलीन होने लगेंगे। इसके लिए कोई विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती है, जब विचारों पे आप ध्यान देना बंद कर देंगे, उनके प्रति उदासीन होने लगेंगे तो धीरे धीरे साक्षी भाव का उदय होगा और आप धीरे से ध्यान में प्रवेश कर लेंगे। सिर्फ थोडा सा भीतर सरक जाना है आपको, आपकी सजगता किसी भी वस्तु , व्यक्ति,शब्द अथवा प्रतीक के प्रति हो सकती है। एकाग्रता से आपके विचार केन्द्रित होने लगते हैं , प्राण शक्ति केन्द्रित होने लगती है, और आप निर्विचार अवस्था की और बढ़ने लगते हैं। आपको ना अपने मन से लड़ना है ना अपने विचार प्रक्रिया से द्वन्द करना है, आपको सिर्फ इन्हें देखना है, सजगता सहित अर्थात जागते हुए, हम ज्यादातर काम बेहोशी में करते हैं, बुद्ध कहते हैं की कोई भी काम करो तो होशपूर्वक करो, जागते हुए करो, कोई भी स्वांस कोई भी क्रिया कोई भी विचार आपसे बिना मिले ना घट जाए, आप जो काम करे उसे पूरा का पूरा करे अर्थात जागते हुए करे। ध्यान जब उतरेगा तो नींद भी जागते हुए होगी अर्थात नींद में भी आपकी सजगता उपस्थित रहेगी। इसके लिए छोटे छोटे कदम उठाने होंगे, अपने दैनिक कार्यो के प्रति सजगता से आरम्भ करिए। राजयोग इस सजगता की पद्धति को प्रत्याहार कहता है, अंतर मौन जो राजयोग की पांचवी अवस्था है, इसी प्रक्रिया को साक्षी भाव भी कहा गया है, हमे कुछ नहीं करना है बस बैठ कर सजग होकर जो हो रहा है उसको देखना है। अगर आप साक्षी भाव से अपनी स्वांस के आवागमन को देखते हैं तो यह बुद्ध की आनापान सती योग पद्धति बन जाता है, जो विपश्यना के नाम से विख्यात है। ध्यान के विषय में और भी बातें आपसे होती रहेंगी। पर आज बस इतना ही.
प्रेम तत्सत