Saturday, November 13, 2010

अघोर मेरी दृष्टि में.

अघोर एक अनूठा अद्वितीय शब्द है, इसके जोड़ का शब्द खोजना मुश्किल है। ऐसे प्रीतिकर शब्द का अर्थ शास्त्रों में उपलब्ध नहीं है , गहन आश्चर्य का विषय है।अघोर को परिभाषित करने के बहुतेरे प्रयास हुए हैं पर अर्थ देने का प्रयास नहीं हुआ। एक भी स्वतंत्र अर्थ या परिभाषा देखने को नहीं मिलती है। अघोर का या तो तुलनात्मक अर्थ मिलता है , " जो घोर ना हो " अघोर शब्द को घोर का नकार माना गया है, विडम्बना है जबकि होना बिलकुल उलट चाहिए था, अघोर का नकार, अघोर का अभाव घोर है, ना की घोर की अनुपस्तिथि अघोर। यह कहना कितना हास्यास्पद होगा की अँधेरे का अभाव प्रकाश है। सूर्य की अनुपस्तिथि को, सूर्य के अभाव को हम रात्री कहते हैं, सूर्य का प्रकाश विलीन होता है, तब अँधेरा उत्पन्न होता है, प्रकाश का नकार अँधेरा है, प्रकाश का अभाव अँधेरा है, प्रकाश के जाने पे जो शुन्य उत्पन्न हुआ वो अँधेरा है। हम कभी यह नहीं कहते की अँधेरा आने को आने को है, अब सूर्य को जाना होगा, हमने कभी नहीं कहा की अँधेरे के आने से सूर्य अस्त होता है। सूर्य के आने से अँधेरा भाग जाता है या सूर्य के जाने से अँधेरा आ जाता है यह सच है, यही सच है। फिर कैसे अघोर कब घोरता या भयानकता का अभाव कहा गया कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आता।
अघोर को किन्ही शास्त्रों में पर्यायवाची की तरह प्रयुक्त किया गया है, अघोर को शिव का पर्याय माना गया है, कुछ जगह विशेष गुणों के समूह को अघोर कहा गया है, वेदों ने भी अघोर को घोर में ही अर्थ दिया है, क्योंकि शास्त्रों की यात्रा सदा अँधेरे से उजाले की और रही है, समझ से परे है यह बात। सही अर्थो में अघोर शब्द को उसकी पूर्ण गरिमा प्रदान करने का प्रयास ही नहीं किया गया,ऐसा प्रतीत होता है।
अघोर शब्द अपने वास्तविक अर्थ को संभवतः पूज्य अघोरेश्वर भगवान् राम की वाणियो से उपलब्ध हुआ, उनकी दृष्टि में अघोर एक स्थिति है, एक पद है, जहाँ पहुँचने पर व्यक्ति में कुछ विशेष गुण प्रगट होने लगते है, जैसे समदर्शिता, संवर्तिता, सौम्यता, कल्याण भाव, करूणा एवं मैत्री। यह अर्थ बहुत हद तक अघोर को वो गरिमा प्रदान कर गया जो सदियों से उसे प्राप्त नहीं था। एक बुद्ध पुरुष से ही ऐसे गरिमापूर्ण अर्थ की अपेक्षा की जा सकती है। यह अनुभव की खदान से निकला वो हीरा है जिसपर विचार करने से आप भी उस और बढ़ सकते हैं।
पूज्य गुरुदेव बाबा समूह रत्न रामजी ने कहा की अघोर आध्यात्म का सर्वोच्च शिखर है, सर्वोच्च अवस्था है, अघोर पथ के पथिको के लिए ,साधको के लिए, इतना अर्थपूर्ण वाक्य और हो नहीं सकता। यह सिर्फ अर्थ ही नहीं अपितु अघोर पथ की साधना का सूक्ष्म विश्लेषण है। इस एक सूत्र पे पूरा शास्त्र लिखा जा सकता है। यह सूत्र अघोर आगम बन सकता है अगर आप इसपर विचार करने का प्रयास करे तो, साधना के जिस गिरनार की हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं, जिसपे विचार करते है, उस तरफ कितना महीन इशारा है यह सूत्र।
बाबा कीनाराम स्थल के पीठाधीश्वर पूज्य बाबा सिद्धार्थ गौतम रामजी कहते हैं की " अघोर गंगा का पर्यायवाची है " । एक कदम और आगे की बात अब अघोर पथ के साधक के अन्दर प्रगट होने वाले गुणों का पता दे रहे हैं बाबा हमें, अघोर का अर्थ हुआ की जो स्वयं पवित्रता को उपलब्ध हुआ और साथ ही जिसमे औरो को पवित्र करने की क्षमता विद्यमान हो। इस कोटि का एक शब्द जैन आगमो में आया है "अरिहंत" और बौद्ध धर्म में शब्द आया "बुद्ध'। अरिहंत का अर्थ है, जो निर्वाण को उपलब्ध हुए हैं, और जिनमे दुसरो को निर्वाण तक पहुचाने की क्षमता हो। बुद्ध भी इसी कोटि का शबद हैजो जाग गए हैं और जो दुसरो को नींद से जगाने में सक्षम हैं ,बोधिसत्व भी एक शब्द है, जिसका अर्थ है,वो जो जाग गए हैं पर दुसरो को जगाने की क्षमता के अभाव सहित।
उपरोक्त विवेचनाओ के प्रकाश में अघोर शब्द का सुस्पष्ट अर्थ मेरी दृष्टि में यही है, की अघोर वो अवस्था है, जहाँ व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है, और वो दुसरो को भी रूपांतरित करने की क्षमता से परिपूर्ण हो जाता है.

Thursday, November 11, 2010

अथ अघोर उपनिषद्

उपनिषद् अर्थात तत्ववेत्ता के चरणों में बैठकर जाने गए वो अपूर्व सूत्र जो व्यवहार में लाने पर अज्ञात के प्रति प्यास बन जाते हैं। उपनिषद् संसार के कुछ अनूठे शब्दों में से एक है , कुछ ही शब्द ऐसे हैं जो अज्ञात ओर प्रेम को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं, उपनिषद् वैसा ही शब्द है । अज्ञात ओर प्रेम यूँ तो पर्यायवाची हैं व्याकरण या व्यवहार की दृष्टि से नहीं अपितु अनुभव की दृष्टि से, अर्थात अगर अज्ञात की खोज में चले तो प्रेम में उतरना होगा ही और अगर प्रेम में उतारोगे तो अंततः अज्ञात तक पहुँच ही जाओगे। अघोर शब्द भी इसी कोटि का शब्द है, अघोर की परिभाषा लोग सहज ही अ + घोर अर्थात जो घोर नहीं है यह कह कर करते हैं , जबकि अघोर शब्द अपने अन्दर अज्ञात की प्रतीति समेटे हुए हैं , अघोर प्रकृति का समानार्थी भी हो सकता है कुछ अर्थो में, अहिंसा शब्द की कोटि में रख सकते हैं अघोर को, अहिंसा जहाँ गुण है वहीँ अघोर वो पद है वो ठौर है जहाँ पहुँचाने पर अहिंसा प्रेम सरलता सहजता स्वतः प्रगट हो जाते हैं ।
अब बात करूँ अघोर उपनिषद् की यह वो सूत्र हैं जो अघोर साधको के अनुभवों का वाणियो का सूत्रों का संकलन है, इन्हें अघोर सूत्र भी कहा जा सकता है, सूत्र अर्थात धागा, प्रेम की तरह महीन पर अज्ञात और हमारे बिच में सेतु बन जाने की सामर्थ्य सहित, सूत्र दुसरे अर्थो में बीज भी हो सकता है, संभवतः बीज शब्द ज्यादा उचित है, सूत्र सदा से बीज की तरह ही लघु रहा है उपनिषद् के सूत्र भी छोटे हैं , परन्तु लघु होते हुए भी विराट की संभावना सहित , जिस तरह बीज अपने अन्दर विशाल वृक्ष की संभावनाओं सहित जन्म लेता है उसी तरह यह सूत्र भी अनंत की अज्ञात की विराट कीप्रतीति कराने में सक्षम होते हैं, वस्तुतः यह सिर्फ इशारे हैं उस अज्ञात की और इंगित करने हेतु , उस मार्ग में चलने की प्रेरणा हैं , जो आपको अज्ञेय की प्रतीति करा दे।
लीजिये एक और अनूठा शब्द आ गया अज्ञेय अर्थात जिसे जाना ना जा सके, अज्ञात वो जिसे जाना ना गया हो पर अज्ञेय जिसे जाना ही नहीं जा सकता है, हाँ उसके प्रेम में पड़सकते हैं उसे अनुभव भी कर सकते हैं , वो हो सकते हैं पर उसे जान नहीं सकते, कह नहीं सकते , नेति नेति कहके जहा ऋषियों ने अपनी वाणी को विराम दे दिया और अनुभव के आनंद में लीन हो गए।
अघोर उपनिषद् ऐसे ही सूत्रों पर मेरे निजी विचार हैं जो मैं आपसे बांटना चाहता हूँ , जिन्हें मैंने अघोर पथिको सदगुरुओं के चरणों में बैठकर सूना है, कुछ को पढ़ा है , जो मुझे लगा वो मैंने मनन किया है और जब बात अनुभव में आ गयी तो उसे लिपिबद्ध करने बैठ गया। यह मैं कोई सूत्र पर टीका नहीं कर रहा ना मेरा आपसे ऐसा कोई आग्रह है की आप इसे माने , मेरी कोशिश है की इन सूत्रों पर आप विचार करे । संबवतःसंभवतः आप विचार करते करते उपलब्ध हो जाएँ या उपलब्ध कर ले और कुछ हो ना हो उस अज्ञात की थोड़ी प्रतीति हो ना हो प्रीती भी हो जाए आपके भीतर तो खुद को धन्य समझूंगा।
प्रेम तत्सत