Thursday, September 29, 2011

नवरात्र का साधनात्मक पक्ष

नवरात्र का पर्व मूल रूप से मिलन की आराधना का पर्व है, संधिकाल के सदुपयोग का पर्व है। जब भी दो ऋतुओं का मिलन होता है, तब नवरात्र का पर्व मनाया जाता है। हमारे शास्त्रों ने चार ऋतुएँ और चार नवरात्र का उल्लेख किया है।दो गुप्त नवरात्र और दो प्रगट नवरात्र। हमेशा याद रखिये मिलन चाहे दिन और रात का हो अथवा रात और दिन का, नदी और सागर का मिलन हो या धरती और अम्बर का, मिलन के समय वातावरण शांत सुरम्य और आल्हाद से परिपूर्ण होता है। मिलन के काल में एनी सभी क्रियाएं मौन होकर साक्षी भाव से देखने का कार्य करती है। आपने गंगा सागर देखा है कभी, गंगा जितनी तीव्र गति से सागर की तरफ दौड़ती है उसके पास पहुँचते पहुंचे वो शांत धीर गंभीर लज्जा से परिपूर्ण हो जाती है, मानो की एक नयी दुल्हन अपने प्रियतम से प्रथम मिलन को जा रही हो। नवरात्र के पर्व में भी जब दो ऋतुओं का मिलन होता है तो प्रकृति शांत सहज और सुगम हो जाती है, इस अवसर पर अगर हम थोडा सा भी प्रकृतिस्थ होने का प्रयास करें खुद में, तो हम खुद के और प्रकृति के ही नहीं, बल्कि परा प्रकृति के रहस्यों को भी समझने में सक्षम हो सकते हैं। यह सर्वोत्तम अवसर होता है अपने मन को मन में रखने का, यह अवसर होता है, अपने शरीर को आने वाली ऋतू के अनूकुल बनाने का। आप गौर करिए जैसी ऋतू आती है वैसे ही फल आने लगते हैं, गर्मी में आम जो गर्मी ही पैदा करता है खाने से, सर्दियों में अमरुद, सीताफल आते हैं जो खाने से शरीर में ठण्ड पैदा करते हैं। अजीब बात है पर सत्य है, प्रकृति चाहती है की आप इन ऋतू फलो का सेवन करे और अपने शरीर को आने वाली ऋतू के हिसाब से ढाल लें। इन फलो का सेवन आपको उस ऋतू के काल में होने वाले संक्रमणों से बचा लेता है। साथ ही नवरात्र पर्व में हम स्वल्पाहाल अथवा अल्पाहार लेकर अपनी जठराग्नि को विश्राम देते हैं और साथ ही उसे शक्ति प्रदान करते हैं ताकि वो आने वाली ऋतू के हिसाब से तैयार हो जाए। ऋतू परिवर्तन के काल में उपवास करने से आपका शरीर विभिन्न संक्रमणों से बचा रहता है। उपवास का एक अर्थ होता है उप + वास अर्थात समीप बैठना या एक पद निचे बैठना। उपवास संग उपासना अर्थात उप+आसन । यही नवरात्र के आराधना का रहस्य है।
नवरात्र के प्रथम तीन दिन हम महाकाली की आराधना करते हैं, जो संहार का प्रतीक है, काली अर्थात वो शक्ति जो हमारे भय, मोह, काम, आदि आठ पाशो से हमें मुक्त करती है। कलुषित मानसिकता का नाश कर हमें शुभ की प्रेरणा देती है। संहार के बाद ही संतति होती है, मृत्यु के पश्चात जन्म, विध्वंस के बाद निर्माण। दुसरे चरण के तीन दिनों में हम पालनी शक्ति महालक्ष्मी की आराधना होती है। हमारे भीतर नवीन विचारों को जन्म देकर शुभ का उदय होता है। तत्पश्चात अंतिम तीन दिनों में हम महासरस्वती की आराधना करते हैं, अर्थात वागीश्वरी जो हमें अच्छी मेधा अच्छी वाणी और अच्छी मानसिकता से भर देती है। नवरात्र के दसवे दिन हम अपराजिता की साधना करते हैं ताकि हम हमेशा आठ पाशों से अपराजित रहें। स्वयं में स्थिरता को प्राप्त करें स्वयं को प्राप्त करें।
प्रेम तत्सत

Thursday, September 15, 2011

अनहद बाजा अंतर बाजे

' जागते हुए नींद में प्रवेश करने का प्रयास आपको उन्मुनी के दर्शन करवा सकता है '

' हम जब भी नींद में प्रवेश करते हैं तो अपने साथ कुछ मेहमानों को भी ले जाते हैं । दिनभर का गुना भाग व्यापार प्यार तकरार समाचार और जाने क्या क्या , और हमारे यह मेहमान चुपके से हमारे अवचेतन के कमरे के स्थाई सदस्य बन जाते हैं, अगर हम नींद में अकेले प्रवेश करे तो आपकी मुलाक़ात अवचेतन से हो सकेगी'

' नींद में जाने के पहले ही हम विचारों के आगोश में चले जाते हैं, नींद के पहले ही हम नींद में आ जाते हैं, अगर कहूँ कि बेहोशी में आ जाते हैं तो गलत नहीं होगा, अरे नींद के मंदिर में जागते हुए प्रवेश करिए, आपकी मुलाकात उस से हो जायेगी जो आपकी नींद में भी जागता रहता है'

' नींद की बगिया में स्वप्न के फूल खिलते हैं, बस आप संदेह के साथ उस फूल की सुगंधी लेने जाइए आप अंतर्जगत में प्रवेश कर जायेंगे, शायद ही कोई होगा जिसने स्वप्न में कभी संदेह किया होगा, आप करके देखिये'

' खुली आँखों से जगत दीखता है बंद आँखों से अंतर जगत, बंद आँखों से निद्रा में बहुत प्रवेश किया एक बार खुली आँखों से विश्राम में जाने की कोशिश करिए'

' जब तक आप जगत से जुड़े हैं, तब तक आप सुषुप्तावस्था में हैं, जैसे ही आप जगत से अलग होंगे, आप जाग जायेंगे, जगत आपको जागत तक नहीं पहुँचने देता'

Friday, August 19, 2011

"इश्वर से भय इश्वर के प्रति पाप है "

ईश्वर से प्रेम ही आस्तिकता है, प्रेम उसी से होता है, जिसके होने कि संभावना होती है, बाहर नहीं तो भीतर ही सही। प्रेम अपने आप में एक घोषणा है, प्रियतम के होने कि उसके अस्तित्व को स्वीकारने की भय नकारात्मक है प्रेम विधायक।
















Sunday, May 8, 2011

माँ तुझे प्रणाम - परा प्रकृति की प्रतिकृति को नमन।

पश्चिमी देशो ने इस देश को बहुत कुछ अच्छा और बहुत कुछ बुरा दिया है, इसाइयत ने हमें रविवार की छुट्टी का उपहार दिया तो साथ ही साथ मदर्स डे के रूप में एक दिन जब वो अपनी आदरांजलि अपनी माँ को अर्पित कर सके। वैसे तो सातों दिन माँ के ही होते हैं, दिन की शुरुवात भी माँ से और अंत भी माँ से होता है। आदिकाल से ऋषियों महर्षियों ने कहा कि सृष्टि का आरम्भ नाद से हुआ, नाद अर्थात शब्द मनीषियों ने इसे शब्द ब्रम्ह कहा है। वो कहते हैं कि जिस शब्द से सृष्टि का निर्माण हुआ है वो ॐ है, परन्तु मेरा सोचने का ढंग कुछ अलग है, मेरे गुरुदेव ने मुझे हमेशा सिखाया है, कि सृष्टि के सारे रहस्य आपके जीवन से जुड़े हैं, अपने आपको, अपने आस पास के वातावरण को घटने वाली चीजों को देखोगे तो सृष्टि और परमात्मा के रहस्य को भी समझ जाओगे। कहा भी गया है, " यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे" उसी तरह मैंने यह समझा कि आध्यात्म हमारे आस पास हमारे दैनिक दैनिंदनी में ही छुपा हुआ है। इसी सोच के दायरे में रहकर एक विचार ने अभ्यंतर में दस्तक दी, कि सृष्टि का आरम्भ शब्द से हुआ है, तो वो शब्द निश्चित रूप से हम सबके जीवन से जुड़ा होगा। फिर मैंने सोचा ऐसा कौन सा शब्द है जो बच्चा बिना बताये ही बोल देता है, जो पहला शब्द बच्चे के मुख से निकलता है वो होता है- माँ । मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ सृष्टि का आरम्भ भी इसी शब्द से हुआ है। गुरुदेव कहते हैं कि जब हमारी माँ के दो हाथ दो पैर हैं तो जगत कि माँ भी हमारी माँ से अलग नहीं होगी, उसके दस हाथ दस सर नहीं हो सकते, वो तो कल्पना है। माँ वो शब्द है जो हमें तब याद आता है जब हमें एक छाँव कि ज़रूरत महसूस होती है, जब हमें सुकून कि ज़रूरत होती है। सोचिये जब आप किसी चीज़ से भयभीत जाते हैं या अचानक कोई आपके सामने आ जाए तो मुह से निकलता है- बाप रे। पर जब हमें चोट लगती है या हम दर्द या तकलीफ में होते हैं तो हमारे मुख से निकलता है- माँ। आज के दिन इस सुकून भरी छांव को नमन, उस ममता के आँचल को नमन.

Tuesday, March 8, 2011

अपनी बात अपने साथ.

" याद रखो दुनिया को, दुनियादारी को हम पकड़ते हैं, दुनिया या दुनियादारी हमको नहीं पकडती है"

" मोह ना बचे तो आत्मा शरीर को त्यागने का उद्यम करने लगती है, मोह ही आत्मा और प्राण को शरीर से बांधकर रखता है"

" किसी भी चीज़ से भागो मत, किसी भी चीज़ को त्यागो मत, उस चीज़ से ऊपर उठो"

" प्रेम का अर्थ होता है, पर अर्थात दुसरे में अहम् का समर्पण। किसी और में अपने मैं को विलीन कर देना ही प्रेम है"

" विचार उस पार पहुंचाने की कश्ती है, जिसे किनारे पहुंचकर त्यागना पड़ता है, अगर पकडे रहोगे तो एक दिन किनारे पर ही डूब जाओगे"

"निर्विचार की यात्रा विचार से ही आरम्भ होती है, निराकार की यात्रा आकार याने आकृति से ही आरम्भ होती है, निर्विकार की यात्रा विकार से ही आरम्भ होती है"

" उसकी इच्छा और कृपा के बिना उसे कोई नहीं जान सकता है, अपनी इच्छा और कृपा के बिना अपने को भी नहीं जाना जा सकता है"

" भागो मत, त्यागो मत, भागोगे तो वो चीज़ और पीछा करेगी, त्यागोगे तो उस चीज़ का मोह और जोर से जकड लेगा, ना भागो ना त्यागो बस जागो , जागो ,जागो। "

प्रेम तत्सत

Saturday, March 5, 2011

उत्तिष्ठ जाग्रतः : जागो और पा लो जिसे पहले ही पा चुके हो.

प्रिय मित्रों,
सदियों से सब कहते आ रहे हैं, फिर भी मैं आज उस बात को दोहराने का प्रयास कर रहा हूँ। जागो मेरे प्यारो। एक जागृत पुरुष के पास बैठ कर, मैंने जो प्रकाश पाया है, मैं चाहता हूँ सब वो पायें। मैं आह्वान कर रहा हूँ आओ और जानो खुद को आओ और उस परदे को हटाओ जिसने तुम्हारी भगवत्ता को ढांक लिया है। हम सब उस अज्ञात के अंश हैं, दिक्कत इतनी ही है कि, हम यह जान कर भी अनजान हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि समंदर हमारे पास है, पर भीतर प्यास ही नहीं उठती है। जब एक जागृत पुरुष के पास आप जाते हैं, तब आपके भीतर भी एक प्यास कि याद उमड़ती है, सारा आध्यात्म इसी प्यास को जगाने कि जुगत है। एक बार अभीप्सा जाग गयी तो अमृत भी दूर नहीं है। मैंने उस प्रकाश उस प्यास के दर्शन किये हैं अपने गुरुदेव के सानिध्य में, और चाहता हूँ कि आप सब में उस प्यास का स्फुरण हो। कब तक सोये पड़े रहोगे पागलों, अब वक्त आ गया पागल होने का, पागल याने पा गल अथात जो पाने कि जिद में गल गया, जिसका अहंकार गल गया उसने पा लिया, जो पा गया और समंदर में मिल गया याने पा कर गल गया। एक सद्गुरु एक जागृत पुरुष एक सिद्ध और कुछ नहीं करता आप बस उसके पास बैठ जाएँ और उसके भीतर कि शान्ति और प्रकाश की एक झलक पा सके तो आपके जीवन में भी उस अज्ञात के प्रति आकांक्षा जाग जायेगी। कुछ नहीं करना है बस जागना है, सबकुछ मिला हुआ है, सबकुछ आपके भीतर है, बस उसके प्रति जो उदासीनता है उसको ख़त्म करना है। तुम वही हो, आओ और अमृत के समंदर में एक छलांग लगा लो। एक जागृत व्यक्ति का सानिध्य कितना प्रीतिकर होता है, इसका अनुभव कर लो। उसके भीतर के प्रकाश को देख कर शायद तुम्हे अपने भीतर के प्रकाश की याद आ जाए। कब तक सोये पड़े रहोगे अब तो जागो। तुम्हे कुछ पाना नहीं है, तुम पहले से ही सबकुछ लेकर आये हो, बस उसे जान लो तो जीवन शांति आनंद और अमृत से भर जाएगा।
अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो परम
प्रेम तत्सत

Monday, February 28, 2011

अनहद बाजा अंतर बाजे

" प्रार्थना हर धर्म हर जात हर सम्प्रदाय में समान रूप से स्वीकारी गयी है। सभी धर्मो ने प्रार्थना को किसी ना किसी रूप में अपनाया है। इसाई धर्म का तो आधार ही प्रार्थना है। प्रार्थना पर अर्थ से जुडी भावना का नाम है, इसके विपरीत याचना स्वार्थ से जुडी भावना का नाम है। पर अर्थ अर्थात दुसरे के हित के लिए दुसरे के अर्थ के लिए किया गया निवेदन प्रार्थना है, और खुद के अर्थ याने स्वार्थ स्व अर्थ से की गयी प्रार्थना भी याचना से ज्यादा कुछ नहीं होती है। प्रार्थना का अर्थ स्वयं के लिए परमात्मा के प्रति आभार से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता, प्रार्थना गहरे में परमात्मा से संवाद है , संवाद वहीँ संभव है जहाँ याचना या निवेदन की संभावना ना हो। क्योंकि संवाद दो समान स्टार के व्यक्तियों के बीच होता है, जबकि निवेदन या याचना में एक छोटा और दूसरा बड़ा होता है। हम परमात्मा से तब तक दूर रहते हैं जब तक हम उसे बड़ा मानते हैं, खुद को दीन हीन समझते हैं। अगर आप परमात्मा की संतान हैं तो दीन हीन होने का प्रश्न ही कहाँ। प्रार्थना भीतर का विषय है, मौन में घटने वाली स्थिति है, मन और वाणी का सायुज्य होने पर प्रार्थना का आरम्भ होता है। प्रार्थना में पर हित की भावना की प्रधानता होती है "

" भय से भागे नहीं उसका निरिक्षण करें , उसके साथ हो लीजिये, भय से एकाग्रता बढती है, भय का पाश बहुत से बन्धनों से मुक्त करने में सक्षम है।"

" ध्यान जाप से ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो अंतर की गन्दगी को बाहर फेंकती है, यह गन्दगी क्रोध, मौन, झुंझलाहट हास्य, रुदन आदि विभिन्न रूप धारण कर लेती है। "

" गुरु व्यर्थ के उपदेश देने की जगह व्यवहार और आचरण से सिखाता है, संभव है की वो कटु वचन और व्यवहार भी प्रस्तुत कर दे, परन्तु यह उसका तरीका है। "

" अभ्यास करते रहिये गलतियां सुधरेंगी और आप उस कला में पारंगत हो जायेंगे, अभ्यास नवीन गुर भी दे जाता है, वो गुर जिनसे दुसरे लोग भी दिशा प्राप्त कर सकते हैं।"

" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है, राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः घटेगा इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।"

प्रेम तत्सत


Wednesday, February 23, 2011

अपनी बात : धर्म और प्रेम

मित्रों,
अघोर उपनिषद् के छठवे सूत्र को लिखने बैठा था, तभी मन में एक विचार आया कि सदियों से मनुष्य के जीवन में एक बात हमेशा से रही है और वो है प्रेम। इसा मसीह ने कहा " अपने पड़ोसियों से प्रेम करो "। लोगो ने समझा जो पड़ोस में रहता है उस से प्रेम करना है। मेरे विचार में यह बहुत कीमती वचन था इसा का, पडोसी का अर्थ मेरे हिसाब से होता है जो आपके पास है, आप जहाँ रहते हैं वहां पास में रहने वाला पडोसी , आप जहाँ काम करते हैं वहां आपके पास काम करने वाला पडोसी, आप कहीं सफ़र पे जा रहे हैं तो आपके बाजू बैठा सहयात्री पडोसी हो गया, आप कहीं खड़े हैं तो आपके पास खड़ा व्यक्ति पडोसी हो गया, और इन सबसे ऊपर हैं आप जो अपने सबसे ज्यादा पास होते हैं, आपसे बढ़कर आपसे ज्यादा नजदीकी पडोसी आपके लिए कोई और नहीं, तो सबसे पहले प्रेम खुद से करें। वैसे भी कोई भी काम करना हो तो खुद से ही उसका आरम्भ उचित होता है, जब स्वयं पर परिक्षण खरा उतर जाए तब दुसरे पर करे। तो सबसे पहला प्रेम खुद से , पर आखिर ऐसी क्या बात है इस प्रेम में की हर धर्म हर मजहब हर सम्प्रदाय ने प्रेम की शिक्षा दी। बस दिक्कत यह हो गयी की प्रेम की शिक्षा ही दी गयी दीक्षा नहीं। जबसे से सृष्टि की रचना हुई है, तबसे दो बातें हमेशा साथ रही हैं, एक आकर्षण रहा दुसरा प्रेम। आकर्षण सदा से मस्तिष्क से आरम्भ होता आया है, और प्रेम ह्रदय से। आकर्षण वासना से प्रेरित होता है, वासना से मेरा अर्थ विविधता से ,प्रेम भावना से प्रेरित होता है, हमारे ह्रदय से उठते भाव किसी और के ह्रदय में स्थान पाने को इच्छुक हो जाते हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं, की वो हमारे भाव को जान ले। यहाँ कुछ पाने की ख्वाहिश नहीं होती है, आकर्षण में पाने का भाव होता है। आकर्षण इन्द्रियों से शुरू होता है, चाहे वो आखें हो या कान या स्पर्शेन्द्रिय। हमें किसी की आवाज़ अच्छी लगती है तो किसी की खूबसूरती या किसी का स्पर्श, पर प्रेम मौन में घट जाता है, प्रेम बंद आखों में हो जाता है, प्रेम उपस्थिति मात्र से अंकुरित हो जाता है। कारण सिर्फ इतना है की प्रेम इन्द्रिय से नहीं ह्रदय से उठता है, प्रेम का मूल ह्रदय होता है। प्रेम मनुष्य का मूल स्वभाव है, कृष्ण गीता में कहते है, की स्वधर्म में मर जाना बेहतर है बजाय दुसरे धर्म में जीने के। धर्म का अर्थ बहुत गहरे में स्वभाव होता है, बल्कि मूल अर्थो में धर्म का अर्थ स्वभाव ही होता है। प्रेम एक मात्र ऐसा पडाव है, जहाँ के लिए आपको किसी को प्रेरित नहीं करना पड़ता है, बिरला ही ऐसा कोई होगा जो किसी के प्रेम में नहीं पड़ा होगा। प्रेम में जाना स्वाभाविक है, क्योंकि यह अज्ञात की प्रेरणा है, आपका जन्म ही अज्ञात के प्रेम में पड़ने के लिए ही हुआ है। अज्ञात ने आपके जीवन में वो बात का समावेश किया है जो उसकी प्रतीति कराती हैं। धर्म और प्रेम का बड़ा गहरा नाता है। अगर मैं यह कहूँ कि आध्यात्म जगत के ज्यादातर रास्ते प्रेम से ही निकले हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रेम का विशुद्ध रूप है भक्ति, और भक्ति को गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि गहरे में भक्ति प्रेम का ही प्रदर्शन है। हमारा मूल स्वभाव प्रेम है, तो फिर हम विषाद में क्यों जी रहे हैं। विषाद का एक मात्र कारण जो मुझे दीखता है वो है, बाहर कि तरफ दौड़ना। हमारी सारी खोज बाहर कि है। हमें दुःख बाहर से मिलता है, हमे दुःख किसी और से मिलता है, और हम उस दुःख से मुक्त होने के लिए सुख ढूँढने लगते हैं, पर विडम्बना यह है ,कि , हम सुख कि दौड़ भी बाहर कि तरफ लगाते हैं, सुख भी तलाशने बाहर की और जाते हैं । और जो कुछ भी बाहर से मिलेगा वो अपना नहीं होगा , वो उधार का होगा किसी दुसरे का होगा।

प्रेम होना स्वाभाविक है, उसके लिए बोलने बताने या मार्गदर्शन करने कि जरुरत नहीं पड़ती है। प्रेम की भाषा ही नहीं होती कोई, उसके लिए क्योंकि शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती, जहाँ शब्द काम नहीं देते तो आँखे काम दे जाती है, जहाँ आँखे काम नहीं देती वहां स्पर्श काम दे जाता है और जहाँ स्पर्श काम नहीं देता वहां ह्रदय की भावनाए काम कर जाती हैं। पर हर हाल में प्रेम घटता है। हर कोई अपने जीवन में प्रेम का आगमन देखता है। एक कथा याद आती है राबिया की, राबिया मुसलमान सूफी संतो की जमात में बड़ा ऊँचा ओहदा रखती हैं। राबिया ने एक बार कुरआन से एक अक्षर को काट दिया था, उसके खिलाफ मौलवी खड़े हो गए की तेरी इतनी जुर्रत। पर राबिया ने जो जवाब दिया वो बड़ा सुन्दर है, मैंने जहाँ जहाँ शैतान लिखा था वो काट दिया, क्योंकि जिस दिन से अल्लाह से मोहब्ब्बत हुई है, मुझे हर तरफ खुदा ही नज़र आता है, शैतान तो कहीं दिखता ही नहीं। यह प्रेम का मार्ग है। अद्वैत का सही अर्थ प्रेम में ही मिलता है। कबीर भी कहते हें " मैं था तब हरी नहीं, और हरी था तो मैं नाय, प्रेम गली अति सांकरी या में दो ना समय" प्रेम का पथ ही अद्वैत का पथ है। मैं स्थूल और सूक्ष्म प्रेम में बहुत ज्यादा अंतर नहीं देखता हूँ, बल्कि मैं आज के प्रेमियों को अपना आदर्श मानता हूँ। आज के प्रेमी जोड़े मुझे आध्यात्म की प्रेरणा देते हें। मैं जब ही पार्क में होटल में कॉलेज के बगीचों के झुरमुट के पास बैठे प्रेमियों को देखता हूँ तो मुझे प्रेरणा मिलती है, प्रेम ऐसे ही होता है। वो प्रेमी पूरी दुनिया को भूल कर एक दुसरे की आँख में आँख डाले बैठे होते हें, उनके पास से तूफ़ान भी गुज़र जाए तो उनको खबर नहीं लगती, ऐसा खो जाते हें वो एक दुसरे में, जैसे मानो गहरे ध्यान में चले गए हो। एक कथा याद आती है यहाँ, एक बादशाह नमाज पढ़ रहे होते हें, उसी वक्त एक प्रेमिका अपने प्रेमी के ध्यान में बेसुध जाते रहती है, अचानक उसका पैर बादशाह की दरी पर रखा जाता है, जिसमे बैठ कर वो नमाज़ पढ़ रहा होता है। बादशाह बिगड़ पड़ता है उस लड़की पर, की ऐ कमबख्त लड़की देख कर नहीं चलती ध्यान किधर है, मैं नमाज़ पढ़ रहा था, खुदा की इबादत में था। लड़की हंस पड़ती है, कहती है, हुजुर मैं तो अपने प्रेमी के खयालो में खोई हुई थी तो मुझे पता नहीं चला पर आप नमाज़ के नाम पर क्या कर रहे थे, अगर आप खुदा के खयालो में खोये होते तो कभी ना जान पाते की मेरा पैर आपकी दरी पे रखा गया। बादशाह बहुत शर्मिन्दा हो जाता है। बात है भी सच्ची और अर्थपूर्ण , अगर इबादत में ही डूबना है तो उस प्रेमिका की तरह डुबो की अपनी सुध बुध भी खो बैठो। प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए सारे ज़माने को दुश्मन मान बैठता है, उसको बर्दाश्त नहीं की कोई उसके प्रेम में बाधा बने, जो उसकी प्रेमिका को पसंद ना करे जो उसकी प्रेमिका के खिलाफ बोले वो उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। ऐसे में वो इंसान मुझे तुलसी बाबा का सबसे बड़ा चेला नज़र आता है, ' जाके प्रिय ना राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही " मैं इस भौतिक प्रेम के पक्ष में कुछ नहीं कह रहा, मैं कहना यह चाहता हूँ की अज्ञात से प्रेम करना हो तो बिलकुल इसी तरह करना चाहिए। ऐसा ध्यान होना चाहिए की बाजू से तूफ़ान आ जाए तो भी हमें फर्क ना पड़े, भीतर इतना गहरे उतर जाएँ की बाहर का भान ही ना रहे।

दुनिया में इसलिए भक्ति कीर्तन प्रार्थना की परम्परा इतनी विकसित हो सकी क्योंकि उसके पीछे परमात्मा के प्रति प्रेम की भावना थी। ध्यान बहुत वैज्ञानिक और रुखा होता है, पर अगर इसमें प्रेम रस मिल जाए तो ध्यान भक्ति के कमल को खिला देता है। उसी तरह अगर प्रेम में भक्ति मिल जाए तो ध्यान का कमल खिलने में देर नहीं लगती है। प्रेम हमारा स्वभाव है, परन्तु वो आज विषाद बना हुआ है, क्योंकि हम आरम्भ गलत करते हें, शुरू खुद से करना है, पर हम शुरू दुसरे से शुरू करते हैं। सिर्फ सिर्फ पत्नी के दीवाने थे, पत्नी के प्रेम में पागल थे, पत्नी ने उलाहना दी और कहा की इतना प्रेम राम से किया होता तो क्या बात होती, बस तुलसी जाग गए। कुछ ऐसे ही हम सब सो रहे हैं, सदियों से जन्म जन्मान्तरो से हम प्रेम करते आये हैं, कभी अज्ञात के प्रति प्रेम प्यास बनकर उठा ही नहीं। अगर जान ले की इतने जन्मो से वही कर रहे हैं, बाहर की और यात्रा तो भी अन्दर जाने के प्रेरणा मिले, पर प्रेम की परिभाषा ही गलत कर दी साधुओ ने संतो ने। प्रेम सिर्फ प्रेम होता है, वो सिर्फ बरसना जानता है, वो भेद नहीं करता, दिक्कत इतनी ही है की कहाँ बरसे यह उसे नहीं पता। तुलसी की तरह हमें प्रेरित करने वाला कोई प्रेमी चाहिए, तुलसी को कोई और कहता तो उन्हें बात समझ नहीं आती।

बात सिर्फ़ इतनी है कि भौतिक प्रेम में उतरेंगे तो बाहर रह जाएँगे और वासना का उदय होगा, आंतरिक प्रेम में उतरेंगे तो भक्ति का उदय होगा । प्रेम वही है बस पात्र बदल जाते हैं, प्रेम के बिना आध्यात्म नीरस हो जाता है। मैं नहीं कहता की भगवान से प्रेम करो । मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि खुद से प्रेम करो। जो भीतर होगा वही बाहर प्रतिबिंबित होगा। शुरूवात सदा से नकली से होती है, सीखने के लिए अक्चा है यह, पर अगर लक्ष्य याद रहे तो फिर विशुद्ध प्रेम में शाश्वत प्रेम में उतरने में वक्त नहीं लगेगा। भक्ति प्रेम का सबसे ऊँचा शिखर है। प्रेम से ही श्रद्धा का जन्म होता है, विश्वास का जन्म तो अहम से होता है. आज बस इतना फिर कभी इस विषय पर .

प्रेम ततसत

Tuesday, February 22, 2011

अपनी बात : ना आँखों देखी ना कानो सुनी

" जिस क्षण मन को बाँधना शुरू करोगे, उसी क्षण से आत्मा के मुक्त होने का प्रमाण मिलने लगेगा"


" हरी को भजे तो हरी को होई " पर मैं कहता हूँ " हरी सो भजे तो हरी सो होई "


"चल मन अब अपने घर, छोड़ जगत का रेला रे, अपने घर ही पिया मिलेंगे, जग है दो पल का मेला रे "


" शक्ति को नियंत्रण में रखना शक्ति की कृपा से ही संभव होता है"


" बहुत सारे देवी देवताओं के चक्कर में मत रहिये, गुरु के चक्कर लगाते रहिये वो आपको सारे चक्करों से मुक्ति दिला देगा"


" गुरु का अर्थ है जिसमे गुरुत्वाकर्षण हो , जो इस पञ्च महाभूत के जगत की सबसे बड़ी शक्ति है"

"गुरु आपको शिक्षा नहीं दीक्षा देता है, गुरु आपको रूपांतरित कर देता है "

" शक्ति के बिना शिव शव हो जाते हैं, हम भी उसी शक्ति के बिना शव हो जाते हैं, वो शक्ति है प्राण, प्राणमयी भगवती की उपासना शिवत्व को उपलब्ध कराती है"





प्रेम तत्सत






Saturday, January 8, 2011

अपनी बात- अनुभूति के अंकुर

" गुरु ज्ञान नहीं देता, गुरु बीज देता है, जिसे भीतर बोने से ज्ञान स्वतः प्रस्फुटित होता है"

" विश्वास की मित्रता ना करे, विश्वास अक्सर टूट जाते हैं, श्रद्धा को अपने सहेली बनाए और फिर जाएँ अज्ञात को खोजने, श्रद्धा चाहे थोड़ी हो या ज्यादा वो आपको अज्ञात तक ले जाने में सक्षम है"

" विश्वास अधिकार सिखाता है, प्रभुता दिखाता है, श्रद्धा समर्पण सिखाती है, प्रभु दिखाती है"

" विरह अवसर है मिलन का, विरह आपकी श्रद्धा की कसौटी है, विरह प्रेम पथ में उत्प्रेरक का कार्य करता है, जब विरह असहनीय हो जाता है, सिवा मिलन के और कुछ भी नहीं सूझता है, तभी अज्ञात का अंतर में प्रवेश होता है"

" इश्वर को पाने के लिए लोग अपनी सुध बुध भी खो देते हैं, पर ई-स्वर को पाने के लिए, आपको अपने अलावा सबकुछ भूलना होगा"

" साधक पाने के लिए साधना करता है, अवधूत देने के लिए, देने के लिए पाना आवश्यक है, अवस्था की बात है "

" साधना में सिर्फ लेना ही लेना है, प्रेम में सिर्फ देना ही देना है "

" जिसे वो कुछ नहीं देता, उसे वो खुद को दे देता है, वो आपका हो जाता है"

प्रेम तत्सत

Thursday, January 6, 2011

अपनी बात - " माला के कुछ मनके बिखरे, तब जाकर मन एक हुआ"

प्रिय मित्रों,
आध्यात्म जगत अज्ञात की अभिव्यक्तियों का साधन है। जिस तरह से अज्ञात ने इस अस्तित्व को निर्मित किया है, या कहें की जिस तरह यह सम्पूर्ण अस्तित्व अज्ञात के फैलाव के रूप में प्रगट हुआ है, कुछ उसी तरह उसकी अभिव्यक्तियाँ भी प्रगट हुई हैं। अस्तित्व असंख्य वस्तुओं, जड़ चेतन, भावनाओं, अभिव्यक्तियो , संवेदनाओं का एक समूह है। जगत की हर संवेदना हर भावना हर स्पंदन अज्ञात की अभिव्यक्ति है। ठीक इसी तरह आध्यात्म भी हज़ारों हज़ार प्रकार का फैलाव लिए हुए है, इन्द्रधनुषी रंगों की तरह बिखरा हुआ है, असंख्य सीढियां , असंख्य घाट , असंख्य मार्ग , चाहे आप किसी का अवलंबन लें, गंतव्य सदा से एक ही रहा है। अस्तित्व की हर क्रिया अज्ञात की और ही प्रेरित है। हमने जानने की समझने की चेष्टा नहीं की, अन्यथा आरम्भ भी अज्ञात से है, मध्य भी उसी में हैं, और अंत भी उसमे ही होता है। अज्ञात तक पहुँचने के बहुत से मार्ग हुए हैं, उन मार्गो से बहुत सी पगडण्डी भी निकल गयी हैं। अज्ञात के रास्तो के आजू बाजू असंख्य खजाने बिखरे पड़े हैं, उन्ही खजानो तक यह पगडण्डी ले जाती हैं। कुछ ऐसे भी रास्ते बने जो हमें इन पगडण्डी तक ले जाते हैं, जिसके आगे अज्ञात का मार्ग होता है। अब निर्णय आपका है, कि क्या आप उस पगडण्डी को छोड़ कर मुख्य मार्ग पे आना चाहते हैं या नहीं। इसी तरह कि एक पगडण्डी है- मंत्र , जो आपको अज्ञात के मार्ग पर ले जाने में सक्षम है। जब से जगत का आध्यात्मिक इतिहास उपलब्ध है, तबसे परमात्मा तक जाने के दो मार्ग प्रचालन में रहें हैं, एक भक्ति का मार्ग है, जिसमे से प्रार्थना कि पगडण्डी निकली है। दुसरा मार्ग है ज्ञान का , जिसमे से मंत्र कि पगडण्डी निकली है। आज हम मंत्र पे चर्चा कर रहे हैं। मंत्र का अर्थ होता है, कुछ शब्द अथवा शब्दों का समूह और थोड़ी गहराई में जाएँ तो अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित मात्रा , निश्चित ध्वनि, निश्चित ले के साथ दोहराया जाता है। अर्थात अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित ले में बार बार ध्वनित किया जाए तो वह आपके अथवा दुसरे के जीवन में प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के घटित होने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण घटक है वो है पुनरावृत्ति अर्थात दोहराना। बिना पुनरावृत्ति के मन्त्र में कोई प्रभावकारी विशेषता उत्पन्न नहीं होती है। यही मंत्र विज्ञान का मूल है। जैसा कि मैंने कहा अस्तित्व कि हर वास्तु, व्यवहार, संवेदना, घटना, क्रिया, प्रतिक्रया अज्ञात कि अभिव्यक्ति है, उसी तरह मन्त्र भी अज्ञात कि अभिव्यक्ति का अंग है, मन्त्र अस्तित्व कि कार्यप्रणाली का प्रतिबिम्ब है। जिस तरह पूरी प्रकृति एक चक्र में आबद्ध है, जन्म मरण फिर जन्म मरण ऐसी ही पुनरावृत्ति चलती जाती है सदियों तक, मन्त्र विज्ञान भी पुनरावृत्ति कि एक कड़ी है। हम अपनी दैनिक जीवनचर्या को देखे तो पायेंगे कि हम रोज़ वही कार्य दोहराए चले जा रहे हैं, क्रमबद्ध रूप से कार्यो कि पुनरावृत्ति कर रहे हैं, जब तक यह दोहराना चलता रहता है, हमें अभीष्ट कि प्राप्ति होती रहती है। जहाँ यह चक्र रुका वहां हमारी अभीष्ट प्राप्ति स्थिर हो जाती है। मन्त्र साधना भी उसी तरह अभीष्ट प्राप्ति का एक साधन है, यह अज्ञात कि और जाने वाले मुख्य मार्ग कि एक पगडण्डी है, जिसे मुख्य मार्ग पर पहुँचते ही त्यागना पड़ता है। मंत्र मुख्यतः शक्ति संचय से सम्बंधित होता है। मेरे पूज्य गुरुदेव महुआ टोली वाले औघड़ बाबा कहते हैं, " जाप से आप शक्ति संगृहीत करते हैं और ध्यान से उस शक्ति का वितरण "।मूलतः मंत्र साधना शक्ति संचय के लिए कि जाती है अथवा शक्ति पूर्वक अपने किसी अभीष्ट कार्य को करने हेतु, शक्ति पूर्वक से मेरा अर्थ गति देने से है, जब आप शक्ति का उपयोग करना चाहते हैं तब ध्यान आवश्यक बन जाता है। ध्यान में व्यक्ति शांत और आनंदित होता है, क्योंकि वो वितरण करता है बांटता है, और ज्ञात रहे देने वाला सदैव प्रफुल्लित होता है। आप जब किसी को कुछ देते हैं तो अनुभव करियेगा कि,भीतर एक आनंद सा उठता है, देने के बाद खुद को खाली करने के बाद, शुन्य हो जाने के बाद उस रिक्त स्थान उस शून्य कि पूर्ति आनंद से होती है, शान्ति से होती है, अज्ञात के स्पंदन से होती है। इसलिए ध्यान सदा से शांति और आनंद का स्त्रोत बना और मंत्र शक्ति तथा प्रभुता का। एक स्थिति पर पहुँचने के बाद आप मन्त्र कि पुनरावृत्ति बंद करके विश्राम में चले जाते हैं, ध्यान में उतर जाते हैं, यह एक रहस्य है, खैर इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे, आज मन्त्र पर ही बात करते हैं।

मेरे विचार में मंत्र का एक अर्थ और होता है, मंत्र अर्थात जो मन को एकत्रित करे, जो मन को केन्द्रित करे। मन जो बिखरा हुआ अपने हज़ारों प्रतिरूपों के साथ, हज़ार प्रतिरूप का अर्थ है कि आपकी चेतना शक्ति बिखर कर अलग अलग विचार अलग अलग इन्द्रिय अनुभवों के साथ संयुक्त होकर बिखरी हुई है। जो शक्ति इस फैलाव में लगी है वो मन के केन्द्रित होते ही स्वयं भी केन्द्रित होने लगती है। जो शक्ति जो चेतना अभी तक मन के द्वारा बाहर कि और लगी हुई थी, मन्त्र जाप के द्वारा वो भीतर कि और बहने लगती है, और आप भीतर अनंत शक्ति का अनुभव करने लगते हैं। किसी भी शब्द अथवा अक्षर को बार बार दोहराने से मन उस क्रिया में एकाग्र होने लगता है, पर जब मन को यह खबर लगती है, कि वो तो एकाग्र होने जा रहा है, तो वो अपने बचने के रास्ते तलाशने लगता है, सबसे पहले वो देखता है कि एक शब्द कि पुनरावृत्ति हो रही है बार बार, तो मन सोचता है कि क्या यह पुनरावृत्ति मिरे बिना भी हो सकती है। बस यहीं मन अपना पहला वार करता है, आप देखेंगे कि मंत्र जाप के दौरान आपकी जिव्हा तो बराबर जाप कर रही होती है परन्तु मन किसी और उधेड़ बुन में लग जाता है, वो कहीं और भ्रमण करने लगता है। इस से बचने के लिए मानसिक जाप करने कहा गया, क्योंकि स्थूल पर मन जल्दी नियंत्रण पा लेता है, सूक्ष्म पर उसे भारी मशक्कत करनी पड़ती है। जब आप मानसिक जाप करते हैं, तब चेतना मन्त्र के साथ विद्यमान होती है, अब मन एक नया खेल खेलने लगता है,वो ऊब पैदा करता है, मन्त्र आपके लिए लोरी बन जाता है, धीरे धीरे आपको नींद आने लगती है, कुछ और गहरा करने वाले स्व सम्मोहन कि अवस्था में चले जाते हैं, परन्तु दोनों ही अवस्था में मंत्र का चेतना से सम्बन्ध टूट जाता है। यही वो बिंदु है जहाँ से आपको निर्णय लेना होता है क्या करें, अगर आप अपनी चेतना को स्थिर रख सके, साक्षी भाव से देखते रहे, खुद को जागता हुआ रख सके तो मन एकाग्र हो जाता है। बस यही वो बिंदु है जहाँ वो बात घटती है जो मैंने सबसे पहले लिखा है माला के कुछ मनके बिखरे तब जाके मन एक हुआ। यह वो जगह है जहाँ माला छूट जाती है, क्योंकि मन्त्र आपके प्राणों में प्रवेश कर जाता है। जैसे ही मंत्र प्राणों के साथ गति करने लगता है वैसे ही आपके रोम रोम से मात्र स्पंदित होना आरम्भ कर देता है। स्थूल रूप से प्राण का अर्थ होता है स्वांस, इसलिए जब भी आप ध्यानस्थ होते हैं तो मंत्र जाप आपको करना नहीं पड़ता है, वो आपको अपनी स्वांसो में दिखने लगता है, वो स्वांस प्रस्वांस में परिलक्षित होता है, यही मंत्र विज्ञान कि सर्वोच्च सीढ़ी है, जिसे अजपाजप कहा गया है। जब आप मंत्र जाप नहीं करते और बिना प्रयास मंत्र आप हिस्सा बन जाता है, तब अलग से कुछ करने कि जरुरत नहीं होती है, क्योंकि जैसे ही आप स्वांस पर ध्यान देते हैं, आपको मंत्र के अनवरत जप कि प्रतीति होती है। और जिस तरह स्वांस लेने और छोड़ने पर ऊब नहीं होती थकावट नहीं होती उसी तरह अजपाजप आपका एक अभिन्न अंग बन जाता है। वो अस्तित्व के साथ जुड़ जाता है जिसपर आपका बस नहीं चलता, तब वो प्रकृति के साथ गतिमान होने लगता है। बस आप ज़रा सा भीतर सरक कर देखते हैं, तो मन्त्र का आवागमन दीखता है, भीतर सुनते हैं तो रोम रोम से मंत्र प्रतिध्वनित होता है, महसूस करने जाते हैं तो हर पोर से मन्त्र का स्पंदन होता है, स्वतः बिना किसी प्रयास के बस यही अवस्था है जिसे संतो ने अजपजाप कहा है। कबीर ने अपनी भाषा में कहा
" मनका मनका छाडी के , मन का मनका फेर"
जैसे ही मन को माला बना लेंगे वैसे ही आप अजपाजप कि और बढ़ने लगेंगे। जैसे ही मन प्राणों के साथ संयुक्त होता है, बाहर कि सब शक्ति ,चेतना भीतर कि और बहने लगती है, मन शक्ति हीन होकर आत्मकेंद्रित हो जाता है। वो मन्त्र जो बिखरा हुआ था, जिसका स्वयं का चरित्र पुनरावृत्ति है, जिसका स्वयं का शौक एक ही चीज़ को दोहराए जाना है, वो बिखरा हुआ मन केन्द्रित होने लगता है। अपने केंद्र पे एकाग्र हो जाता है। जैसे ही माला छूटती है अजपाजप घटता है, या ज्यादा बेहतर है कि कहूँ जैसे ही अजपाजप लगता है माला विलीन हो जाती है। ठीक इसी प्रकार जब मन अपने असंख्य प्रतिरूपों को समेटकर एक होता है तब समाधि कि सुगंधी प्रगट होती है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं" मन को मन में रखो, प्रयास करो मन मन में रहे" यही वो स्थिति है कि जब असंख्य मन अपने केंद्र में आकर एक हो जाते हैं, सारे प्रतिरूप मन में आकर केन्द्रित हो जाते हैं, जब सारे मन मन में होते हैं, और मन केन्द्रित होता है, तभी ध्यान का पुष्प खिलता है, तभी समाधि कि झलक मिलती है।

साधना का मूल उद्देश्य शक्ति को भीतर कि और समेत कर उसे कुण्डलिनी से संयुक्त कर ऊपर के मार पर अग्रसर करना होता है। परन्तु हमने मुख्य लक्ष्य के बजाय उस मार पर मिलने वाली सिद्धियाँ शक्तियां प्राप्त करने में अपना समय और श्रम गवाया है। कुछ जो मन्त्र मार्ग को समझ नहीं सके वो या तो ऊब गए या सो गए उनकी बात करना बेकार है, ऐसे लोगो के लिए मंत्र नींद कि गोली के अलावा कुछ नहीं है। मन्त्र तो मन को नियंत्रित करने का केन्द्रित करने का एक माध्यम है, आप मन्त्र पर सवार होकर अज्ञात से मिलन कि यात्रा कर सकते हैं। बस याद रहे मुख्य मार्ग पर पहुँचने के लिए पगडण्डी का , और आस पास बिखरे खजानो का मोह त्यागना होगा। मन्त्र शक्ति और मन्त्र से प्राप्ति भी एक पगडण्डी है इस मार्ग कि, उसपर कभी और बात करेंगे आज इतना ही........
प्रेम तत्सत

Tuesday, January 4, 2011

अपनी बात- कुछ बिखरे मोती

" मुख में दाबे पूँछ है अपनी, शिव को लिए लिपटाय
गुरु कृपा से ऊपर जाके फिर शिव से मिल जाए"

" अज्ञात से मिलन की वो अनंत यात्रा गुरु रूपी नैय्या पर ही तय की जाती है।"

" हिमालय में कहीं भी शान्ति नहीं है, विश्व में कहीं भी कोलाहल नहीं है,
सब दृष्टि का भ्रम है, गुरु पद नख निहारो दृष्टि मिलेगी"

" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है,
राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः होता है, इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। "

" वो अंतर में प्रकाश लेकर तब आता है, जब वहां कोई ना हो ना दीन, ना दुनिया और ना आप खुद "

" आप सारी दुनिया को जानने चले हैं, पर खुद से बिलकुल ही अनजान हैं, गुरु आपसे आपका परिचय करवा देता है, आप अपने हो जाते हैं "

प्रेम तत्सत