Sunday, May 8, 2011

माँ तुझे प्रणाम - परा प्रकृति की प्रतिकृति को नमन।

पश्चिमी देशो ने इस देश को बहुत कुछ अच्छा और बहुत कुछ बुरा दिया है, इसाइयत ने हमें रविवार की छुट्टी का उपहार दिया तो साथ ही साथ मदर्स डे के रूप में एक दिन जब वो अपनी आदरांजलि अपनी माँ को अर्पित कर सके। वैसे तो सातों दिन माँ के ही होते हैं, दिन की शुरुवात भी माँ से और अंत भी माँ से होता है। आदिकाल से ऋषियों महर्षियों ने कहा कि सृष्टि का आरम्भ नाद से हुआ, नाद अर्थात शब्द मनीषियों ने इसे शब्द ब्रम्ह कहा है। वो कहते हैं कि जिस शब्द से सृष्टि का निर्माण हुआ है वो ॐ है, परन्तु मेरा सोचने का ढंग कुछ अलग है, मेरे गुरुदेव ने मुझे हमेशा सिखाया है, कि सृष्टि के सारे रहस्य आपके जीवन से जुड़े हैं, अपने आपको, अपने आस पास के वातावरण को घटने वाली चीजों को देखोगे तो सृष्टि और परमात्मा के रहस्य को भी समझ जाओगे। कहा भी गया है, " यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे" उसी तरह मैंने यह समझा कि आध्यात्म हमारे आस पास हमारे दैनिक दैनिंदनी में ही छुपा हुआ है। इसी सोच के दायरे में रहकर एक विचार ने अभ्यंतर में दस्तक दी, कि सृष्टि का आरम्भ शब्द से हुआ है, तो वो शब्द निश्चित रूप से हम सबके जीवन से जुड़ा होगा। फिर मैंने सोचा ऐसा कौन सा शब्द है जो बच्चा बिना बताये ही बोल देता है, जो पहला शब्द बच्चे के मुख से निकलता है वो होता है- माँ । मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ सृष्टि का आरम्भ भी इसी शब्द से हुआ है। गुरुदेव कहते हैं कि जब हमारी माँ के दो हाथ दो पैर हैं तो जगत कि माँ भी हमारी माँ से अलग नहीं होगी, उसके दस हाथ दस सर नहीं हो सकते, वो तो कल्पना है। माँ वो शब्द है जो हमें तब याद आता है जब हमें एक छाँव कि ज़रूरत महसूस होती है, जब हमें सुकून कि ज़रूरत होती है। सोचिये जब आप किसी चीज़ से भयभीत जाते हैं या अचानक कोई आपके सामने आ जाए तो मुह से निकलता है- बाप रे। पर जब हमें चोट लगती है या हम दर्द या तकलीफ में होते हैं तो हमारे मुख से निकलता है- माँ। आज के दिन इस सुकून भरी छांव को नमन, उस ममता के आँचल को नमन.