Saturday, January 8, 2011

अपनी बात- अनुभूति के अंकुर

" गुरु ज्ञान नहीं देता, गुरु बीज देता है, जिसे भीतर बोने से ज्ञान स्वतः प्रस्फुटित होता है"

" विश्वास की मित्रता ना करे, विश्वास अक्सर टूट जाते हैं, श्रद्धा को अपने सहेली बनाए और फिर जाएँ अज्ञात को खोजने, श्रद्धा चाहे थोड़ी हो या ज्यादा वो आपको अज्ञात तक ले जाने में सक्षम है"

" विश्वास अधिकार सिखाता है, प्रभुता दिखाता है, श्रद्धा समर्पण सिखाती है, प्रभु दिखाती है"

" विरह अवसर है मिलन का, विरह आपकी श्रद्धा की कसौटी है, विरह प्रेम पथ में उत्प्रेरक का कार्य करता है, जब विरह असहनीय हो जाता है, सिवा मिलन के और कुछ भी नहीं सूझता है, तभी अज्ञात का अंतर में प्रवेश होता है"

" इश्वर को पाने के लिए लोग अपनी सुध बुध भी खो देते हैं, पर ई-स्वर को पाने के लिए, आपको अपने अलावा सबकुछ भूलना होगा"

" साधक पाने के लिए साधना करता है, अवधूत देने के लिए, देने के लिए पाना आवश्यक है, अवस्था की बात है "

" साधना में सिर्फ लेना ही लेना है, प्रेम में सिर्फ देना ही देना है "

" जिसे वो कुछ नहीं देता, उसे वो खुद को दे देता है, वो आपका हो जाता है"

प्रेम तत्सत

Thursday, January 6, 2011

अपनी बात - " माला के कुछ मनके बिखरे, तब जाकर मन एक हुआ"

प्रिय मित्रों,
आध्यात्म जगत अज्ञात की अभिव्यक्तियों का साधन है। जिस तरह से अज्ञात ने इस अस्तित्व को निर्मित किया है, या कहें की जिस तरह यह सम्पूर्ण अस्तित्व अज्ञात के फैलाव के रूप में प्रगट हुआ है, कुछ उसी तरह उसकी अभिव्यक्तियाँ भी प्रगट हुई हैं। अस्तित्व असंख्य वस्तुओं, जड़ चेतन, भावनाओं, अभिव्यक्तियो , संवेदनाओं का एक समूह है। जगत की हर संवेदना हर भावना हर स्पंदन अज्ञात की अभिव्यक्ति है। ठीक इसी तरह आध्यात्म भी हज़ारों हज़ार प्रकार का फैलाव लिए हुए है, इन्द्रधनुषी रंगों की तरह बिखरा हुआ है, असंख्य सीढियां , असंख्य घाट , असंख्य मार्ग , चाहे आप किसी का अवलंबन लें, गंतव्य सदा से एक ही रहा है। अस्तित्व की हर क्रिया अज्ञात की और ही प्रेरित है। हमने जानने की समझने की चेष्टा नहीं की, अन्यथा आरम्भ भी अज्ञात से है, मध्य भी उसी में हैं, और अंत भी उसमे ही होता है। अज्ञात तक पहुँचने के बहुत से मार्ग हुए हैं, उन मार्गो से बहुत सी पगडण्डी भी निकल गयी हैं। अज्ञात के रास्तो के आजू बाजू असंख्य खजाने बिखरे पड़े हैं, उन्ही खजानो तक यह पगडण्डी ले जाती हैं। कुछ ऐसे भी रास्ते बने जो हमें इन पगडण्डी तक ले जाते हैं, जिसके आगे अज्ञात का मार्ग होता है। अब निर्णय आपका है, कि क्या आप उस पगडण्डी को छोड़ कर मुख्य मार्ग पे आना चाहते हैं या नहीं। इसी तरह कि एक पगडण्डी है- मंत्र , जो आपको अज्ञात के मार्ग पर ले जाने में सक्षम है। जब से जगत का आध्यात्मिक इतिहास उपलब्ध है, तबसे परमात्मा तक जाने के दो मार्ग प्रचालन में रहें हैं, एक भक्ति का मार्ग है, जिसमे से प्रार्थना कि पगडण्डी निकली है। दुसरा मार्ग है ज्ञान का , जिसमे से मंत्र कि पगडण्डी निकली है। आज हम मंत्र पे चर्चा कर रहे हैं। मंत्र का अर्थ होता है, कुछ शब्द अथवा शब्दों का समूह और थोड़ी गहराई में जाएँ तो अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित मात्रा , निश्चित ध्वनि, निश्चित ले के साथ दोहराया जाता है। अर्थात अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित ले में बार बार ध्वनित किया जाए तो वह आपके अथवा दुसरे के जीवन में प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के घटित होने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण घटक है वो है पुनरावृत्ति अर्थात दोहराना। बिना पुनरावृत्ति के मन्त्र में कोई प्रभावकारी विशेषता उत्पन्न नहीं होती है। यही मंत्र विज्ञान का मूल है। जैसा कि मैंने कहा अस्तित्व कि हर वास्तु, व्यवहार, संवेदना, घटना, क्रिया, प्रतिक्रया अज्ञात कि अभिव्यक्ति है, उसी तरह मन्त्र भी अज्ञात कि अभिव्यक्ति का अंग है, मन्त्र अस्तित्व कि कार्यप्रणाली का प्रतिबिम्ब है। जिस तरह पूरी प्रकृति एक चक्र में आबद्ध है, जन्म मरण फिर जन्म मरण ऐसी ही पुनरावृत्ति चलती जाती है सदियों तक, मन्त्र विज्ञान भी पुनरावृत्ति कि एक कड़ी है। हम अपनी दैनिक जीवनचर्या को देखे तो पायेंगे कि हम रोज़ वही कार्य दोहराए चले जा रहे हैं, क्रमबद्ध रूप से कार्यो कि पुनरावृत्ति कर रहे हैं, जब तक यह दोहराना चलता रहता है, हमें अभीष्ट कि प्राप्ति होती रहती है। जहाँ यह चक्र रुका वहां हमारी अभीष्ट प्राप्ति स्थिर हो जाती है। मन्त्र साधना भी उसी तरह अभीष्ट प्राप्ति का एक साधन है, यह अज्ञात कि और जाने वाले मुख्य मार्ग कि एक पगडण्डी है, जिसे मुख्य मार्ग पर पहुँचते ही त्यागना पड़ता है। मंत्र मुख्यतः शक्ति संचय से सम्बंधित होता है। मेरे पूज्य गुरुदेव महुआ टोली वाले औघड़ बाबा कहते हैं, " जाप से आप शक्ति संगृहीत करते हैं और ध्यान से उस शक्ति का वितरण "।मूलतः मंत्र साधना शक्ति संचय के लिए कि जाती है अथवा शक्ति पूर्वक अपने किसी अभीष्ट कार्य को करने हेतु, शक्ति पूर्वक से मेरा अर्थ गति देने से है, जब आप शक्ति का उपयोग करना चाहते हैं तब ध्यान आवश्यक बन जाता है। ध्यान में व्यक्ति शांत और आनंदित होता है, क्योंकि वो वितरण करता है बांटता है, और ज्ञात रहे देने वाला सदैव प्रफुल्लित होता है। आप जब किसी को कुछ देते हैं तो अनुभव करियेगा कि,भीतर एक आनंद सा उठता है, देने के बाद खुद को खाली करने के बाद, शुन्य हो जाने के बाद उस रिक्त स्थान उस शून्य कि पूर्ति आनंद से होती है, शान्ति से होती है, अज्ञात के स्पंदन से होती है। इसलिए ध्यान सदा से शांति और आनंद का स्त्रोत बना और मंत्र शक्ति तथा प्रभुता का। एक स्थिति पर पहुँचने के बाद आप मन्त्र कि पुनरावृत्ति बंद करके विश्राम में चले जाते हैं, ध्यान में उतर जाते हैं, यह एक रहस्य है, खैर इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे, आज मन्त्र पर ही बात करते हैं।

मेरे विचार में मंत्र का एक अर्थ और होता है, मंत्र अर्थात जो मन को एकत्रित करे, जो मन को केन्द्रित करे। मन जो बिखरा हुआ अपने हज़ारों प्रतिरूपों के साथ, हज़ार प्रतिरूप का अर्थ है कि आपकी चेतना शक्ति बिखर कर अलग अलग विचार अलग अलग इन्द्रिय अनुभवों के साथ संयुक्त होकर बिखरी हुई है। जो शक्ति इस फैलाव में लगी है वो मन के केन्द्रित होते ही स्वयं भी केन्द्रित होने लगती है। जो शक्ति जो चेतना अभी तक मन के द्वारा बाहर कि और लगी हुई थी, मन्त्र जाप के द्वारा वो भीतर कि और बहने लगती है, और आप भीतर अनंत शक्ति का अनुभव करने लगते हैं। किसी भी शब्द अथवा अक्षर को बार बार दोहराने से मन उस क्रिया में एकाग्र होने लगता है, पर जब मन को यह खबर लगती है, कि वो तो एकाग्र होने जा रहा है, तो वो अपने बचने के रास्ते तलाशने लगता है, सबसे पहले वो देखता है कि एक शब्द कि पुनरावृत्ति हो रही है बार बार, तो मन सोचता है कि क्या यह पुनरावृत्ति मिरे बिना भी हो सकती है। बस यहीं मन अपना पहला वार करता है, आप देखेंगे कि मंत्र जाप के दौरान आपकी जिव्हा तो बराबर जाप कर रही होती है परन्तु मन किसी और उधेड़ बुन में लग जाता है, वो कहीं और भ्रमण करने लगता है। इस से बचने के लिए मानसिक जाप करने कहा गया, क्योंकि स्थूल पर मन जल्दी नियंत्रण पा लेता है, सूक्ष्म पर उसे भारी मशक्कत करनी पड़ती है। जब आप मानसिक जाप करते हैं, तब चेतना मन्त्र के साथ विद्यमान होती है, अब मन एक नया खेल खेलने लगता है,वो ऊब पैदा करता है, मन्त्र आपके लिए लोरी बन जाता है, धीरे धीरे आपको नींद आने लगती है, कुछ और गहरा करने वाले स्व सम्मोहन कि अवस्था में चले जाते हैं, परन्तु दोनों ही अवस्था में मंत्र का चेतना से सम्बन्ध टूट जाता है। यही वो बिंदु है जहाँ से आपको निर्णय लेना होता है क्या करें, अगर आप अपनी चेतना को स्थिर रख सके, साक्षी भाव से देखते रहे, खुद को जागता हुआ रख सके तो मन एकाग्र हो जाता है। बस यही वो बिंदु है जहाँ वो बात घटती है जो मैंने सबसे पहले लिखा है माला के कुछ मनके बिखरे तब जाके मन एक हुआ। यह वो जगह है जहाँ माला छूट जाती है, क्योंकि मन्त्र आपके प्राणों में प्रवेश कर जाता है। जैसे ही मंत्र प्राणों के साथ गति करने लगता है वैसे ही आपके रोम रोम से मात्र स्पंदित होना आरम्भ कर देता है। स्थूल रूप से प्राण का अर्थ होता है स्वांस, इसलिए जब भी आप ध्यानस्थ होते हैं तो मंत्र जाप आपको करना नहीं पड़ता है, वो आपको अपनी स्वांसो में दिखने लगता है, वो स्वांस प्रस्वांस में परिलक्षित होता है, यही मंत्र विज्ञान कि सर्वोच्च सीढ़ी है, जिसे अजपाजप कहा गया है। जब आप मंत्र जाप नहीं करते और बिना प्रयास मंत्र आप हिस्सा बन जाता है, तब अलग से कुछ करने कि जरुरत नहीं होती है, क्योंकि जैसे ही आप स्वांस पर ध्यान देते हैं, आपको मंत्र के अनवरत जप कि प्रतीति होती है। और जिस तरह स्वांस लेने और छोड़ने पर ऊब नहीं होती थकावट नहीं होती उसी तरह अजपाजप आपका एक अभिन्न अंग बन जाता है। वो अस्तित्व के साथ जुड़ जाता है जिसपर आपका बस नहीं चलता, तब वो प्रकृति के साथ गतिमान होने लगता है। बस आप ज़रा सा भीतर सरक कर देखते हैं, तो मन्त्र का आवागमन दीखता है, भीतर सुनते हैं तो रोम रोम से मंत्र प्रतिध्वनित होता है, महसूस करने जाते हैं तो हर पोर से मन्त्र का स्पंदन होता है, स्वतः बिना किसी प्रयास के बस यही अवस्था है जिसे संतो ने अजपजाप कहा है। कबीर ने अपनी भाषा में कहा
" मनका मनका छाडी के , मन का मनका फेर"
जैसे ही मन को माला बना लेंगे वैसे ही आप अजपाजप कि और बढ़ने लगेंगे। जैसे ही मन प्राणों के साथ संयुक्त होता है, बाहर कि सब शक्ति ,चेतना भीतर कि और बहने लगती है, मन शक्ति हीन होकर आत्मकेंद्रित हो जाता है। वो मन्त्र जो बिखरा हुआ था, जिसका स्वयं का चरित्र पुनरावृत्ति है, जिसका स्वयं का शौक एक ही चीज़ को दोहराए जाना है, वो बिखरा हुआ मन केन्द्रित होने लगता है। अपने केंद्र पे एकाग्र हो जाता है। जैसे ही माला छूटती है अजपाजप घटता है, या ज्यादा बेहतर है कि कहूँ जैसे ही अजपाजप लगता है माला विलीन हो जाती है। ठीक इसी प्रकार जब मन अपने असंख्य प्रतिरूपों को समेटकर एक होता है तब समाधि कि सुगंधी प्रगट होती है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं" मन को मन में रखो, प्रयास करो मन मन में रहे" यही वो स्थिति है कि जब असंख्य मन अपने केंद्र में आकर एक हो जाते हैं, सारे प्रतिरूप मन में आकर केन्द्रित हो जाते हैं, जब सारे मन मन में होते हैं, और मन केन्द्रित होता है, तभी ध्यान का पुष्प खिलता है, तभी समाधि कि झलक मिलती है।

साधना का मूल उद्देश्य शक्ति को भीतर कि और समेत कर उसे कुण्डलिनी से संयुक्त कर ऊपर के मार पर अग्रसर करना होता है। परन्तु हमने मुख्य लक्ष्य के बजाय उस मार पर मिलने वाली सिद्धियाँ शक्तियां प्राप्त करने में अपना समय और श्रम गवाया है। कुछ जो मन्त्र मार्ग को समझ नहीं सके वो या तो ऊब गए या सो गए उनकी बात करना बेकार है, ऐसे लोगो के लिए मंत्र नींद कि गोली के अलावा कुछ नहीं है। मन्त्र तो मन को नियंत्रित करने का केन्द्रित करने का एक माध्यम है, आप मन्त्र पर सवार होकर अज्ञात से मिलन कि यात्रा कर सकते हैं। बस याद रहे मुख्य मार्ग पर पहुँचने के लिए पगडण्डी का , और आस पास बिखरे खजानो का मोह त्यागना होगा। मन्त्र शक्ति और मन्त्र से प्राप्ति भी एक पगडण्डी है इस मार्ग कि, उसपर कभी और बात करेंगे आज इतना ही........
प्रेम तत्सत

Tuesday, January 4, 2011

अपनी बात- कुछ बिखरे मोती

" मुख में दाबे पूँछ है अपनी, शिव को लिए लिपटाय
गुरु कृपा से ऊपर जाके फिर शिव से मिल जाए"

" अज्ञात से मिलन की वो अनंत यात्रा गुरु रूपी नैय्या पर ही तय की जाती है।"

" हिमालय में कहीं भी शान्ति नहीं है, विश्व में कहीं भी कोलाहल नहीं है,
सब दृष्टि का भ्रम है, गुरु पद नख निहारो दृष्टि मिलेगी"

" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है,
राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः होता है, इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। "

" वो अंतर में प्रकाश लेकर तब आता है, जब वहां कोई ना हो ना दीन, ना दुनिया और ना आप खुद "

" आप सारी दुनिया को जानने चले हैं, पर खुद से बिलकुल ही अनजान हैं, गुरु आपसे आपका परिचय करवा देता है, आप अपने हो जाते हैं "

प्रेम तत्सत