tag:blogger.com,1999:blog-43718378842539910382023-11-15T09:38:28.846-08:00अघोर उपनिषद्अघोर सन्तो, अघोर साधको एवं अघोर पथिको के अनुभवों एवं वाणियो का संग्रह.कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.comBlogger20125tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-73371673364829970282011-09-29T11:17:00.000-07:002011-09-29T12:31:43.502-07:00नवरात्र का साधनात्मक पक्षनवरात्र का पर्व मूल रूप से मिलन की आराधना का पर्व है, संधिकाल के सदुपयोग का पर्व है। जब भी दो ऋतुओं का मिलन होता है, तब नवरात्र का पर्व मनाया जाता है। हमारे शास्त्रों ने चार ऋतुएँ और चार नवरात्र का उल्लेख किया है।दो गुप्त नवरात्र और दो प्रगट नवरात्र। हमेशा याद रखिये मिलन चाहे दिन और रात का हो अथवा रात और दिन का, नदी और सागर का मिलन हो या धरती और अम्बर का, मिलन के समय वातावरण शांत सुरम्य और आल्हाद से परिपूर्ण होता है। मिलन के काल में एनी सभी क्रियाएं मौन होकर साक्षी भाव से देखने का कार्य करती है। आपने गंगा सागर देखा है कभी, गंगा जितनी तीव्र गति से सागर की तरफ दौड़ती है उसके पास पहुँचते पहुंचे वो शांत धीर गंभीर लज्जा से परिपूर्ण हो जाती है, मानो की एक नयी दुल्हन अपने प्रियतम से प्रथम मिलन को जा रही हो। <strong><span style="color:#ff0000;">नवरात्र के पर्व में भी जब दो ऋतुओं का मिलन होता है तो प्रकृति शांत सहज और सुगम हो जाती है, इस अवसर पर अगर हम थोडा सा भी प्रकृतिस्थ होने का प्रयास करें खुद में, तो हम खुद के और प्रकृति के ही नहीं, बल्कि परा प्रकृति के रहस्यों को भी समझने में सक्षम हो सकते हैं।</span></strong> यह सर्वोत्तम अवसर होता है अपने मन को मन में रखने का, यह अवसर होता है, अपने शरीर को आने वाली ऋतू के अनूकुल बनाने का। आप गौर करिए जैसी ऋतू आती है वैसे ही फल आने लगते हैं, गर्मी में आम जो गर्मी ही पैदा करता है खाने से, सर्दियों में अमरुद, सीताफल आते हैं जो खाने से शरीर में ठण्ड पैदा करते हैं। अजीब बात है पर सत्य है, प्रकृति चाहती है की आप इन ऋतू फलो का सेवन करे और अपने शरीर को आने वाली ऋतू के हिसाब से ढाल लें। इन फलो का सेवन आपको उस ऋतू के काल में होने वाले संक्रमणों से बचा लेता है। साथ ही नवरात्र पर्व में हम स्वल्पाहाल अथवा अल्पाहार लेकर अपनी जठराग्नि को विश्राम देते हैं और साथ ही उसे शक्ति प्रदान करते हैं ताकि वो आने वाली ऋतू के हिसाब से तैयार हो जाए। ऋतू परिवर्तन के काल में उपवास करने से आपका शरीर विभिन्न संक्रमणों से बचा रहता है। उपवास का एक अर्थ होता है उप + वास अर्थात समीप बैठना या एक पद निचे बैठना। उपवास संग उपासना अर्थात उप+आसन । यही नवरात्र के आराधना का रहस्य है।<br />नवरात्र के प्रथम तीन दिन हम महाकाली की आराधना करते हैं, जो संहार का प्रतीक है, काली अर्थात वो शक्ति जो हमारे भय, मोह, काम, आदि आठ पाशो से हमें मुक्त करती है। कलुषित मानसिकता का नाश कर हमें शुभ की प्रेरणा देती है। संहार के बाद ही संतति होती है, मृत्यु के पश्चात जन्म, विध्वंस के बाद निर्माण। दुसरे चरण के तीन दिनों में हम पालनी शक्ति महालक्ष्मी की आराधना होती है। हमारे भीतर नवीन विचारों को जन्म देकर शुभ का उदय होता है। तत्पश्चात अंतिम तीन दिनों में हम महासरस्वती की आराधना करते हैं, अर्थात वागीश्वरी जो हमें अच्छी मेधा अच्छी वाणी और अच्छी मानसिकता से भर देती है। नवरात्र के दसवे दिन हम अपराजिता की साधना करते हैं ताकि हम हमेशा आठ पाशों से अपराजित रहें। स्वयं में स्थिरता को प्राप्त करें स्वयं को प्राप्त करें।<br />प्रेम तत्सतकमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-77994633008619241742011-09-15T11:05:00.000-07:002011-09-15T11:17:36.683-07:00अनहद बाजा अंतर बाजे' जागते हुए नींद में प्रवेश करने का प्रयास आपको उन्मुनी के दर्शन करवा सकता है '<br /><br />' हम जब भी नींद में प्रवेश करते हैं तो अपने साथ कुछ मेहमानों को भी ले जाते हैं । दिनभर का गुना भाग व्यापार प्यार तकरार समाचार और जाने क्या क्या , और हमारे यह मेहमान चुपके से हमारे अवचेतन के कमरे के स्थाई सदस्य बन जाते हैं, अगर हम नींद में अकेले प्रवेश करे तो आपकी मुलाक़ात अवचेतन से हो सकेगी'<br /><br />' नींद में जाने के पहले ही हम विचारों के आगोश में चले जाते हैं, नींद के पहले ही हम नींद में आ जाते हैं, अगर कहूँ कि बेहोशी में आ जाते हैं तो गलत नहीं होगा, अरे नींद के मंदिर में जागते हुए प्रवेश करिए, आपकी मुलाकात उस से हो जायेगी जो आपकी नींद में भी जागता रहता है'<br /><br />' नींद की बगिया में स्वप्न के फूल खिलते हैं, बस आप संदेह के साथ उस फूल की सुगंधी लेने जाइए आप अंतर्जगत में प्रवेश कर जायेंगे, शायद ही कोई होगा जिसने स्वप्न में कभी संदेह किया होगा, आप करके देखिये'<br /><br />' खुली आँखों से जगत दीखता है बंद आँखों से अंतर जगत, बंद आँखों से निद्रा में बहुत प्रवेश किया एक बार खुली आँखों से विश्राम में जाने की कोशिश करिए'<br /><br />' जब तक आप जगत से जुड़े हैं, तब तक आप सुषुप्तावस्था में हैं, जैसे ही आप जगत से अलग होंगे, आप जाग जायेंगे, जगत आपको जागत तक नहीं पहुँचने देता'कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-62084800676739743072011-08-19T04:30:00.000-07:002011-08-19T10:52:54.921-07:00"इश्वर से भय इश्वर के प्रति पाप है "<span></span>ईश्वर से प्रेम ही आस्तिकता है, प्रेम उसी से होता है, जिसके होने कि संभावना होती है, बाहर नहीं तो भीतर ही सही। प्रेम अपने आप में एक घोषणा है, प्रियतम के होने कि उसके अस्तित्व को स्वीकारने की भय नकारात्मक है प्रेम विधायक।
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<br />कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-11294189988978017032011-05-08T02:10:00.000-07:002011-05-08T02:32:34.305-07:00माँ तुझे प्रणाम - परा प्रकृति की प्रतिकृति को नमन।पश्चिमी देशो ने इस देश को बहुत कुछ अच्छा और बहुत कुछ बुरा दिया है, इसाइयत ने हमें रविवार की छुट्टी का उपहार दिया तो साथ ही साथ मदर्स डे के रूप में एक दिन जब वो अपनी आदरांजलि अपनी माँ को अर्पित कर सके। वैसे तो सातों दिन माँ के ही होते हैं, दिन की शुरुवात भी माँ से और अंत भी माँ से होता है। आदिकाल से ऋषियों महर्षियों ने कहा कि सृष्टि का आरम्भ नाद से हुआ, नाद अर्थात शब्द मनीषियों ने इसे शब्द ब्रम्ह कहा है। वो कहते हैं कि जिस शब्द से सृष्टि का निर्माण हुआ है वो ॐ है, परन्तु मेरा सोचने का ढंग कुछ अलग है, मेरे गुरुदेव ने मुझे हमेशा सिखाया है, कि सृष्टि के सारे रहस्य आपके जीवन से जुड़े हैं, अपने आपको, अपने आस पास के वातावरण को घटने वाली चीजों को देखोगे तो सृष्टि और परमात्मा के रहस्य को भी समझ जाओगे। कहा भी गया है, " यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे" उसी तरह मैंने यह समझा कि आध्यात्म हमारे आस पास हमारे दैनिक दैनिंदनी में ही छुपा हुआ है। इसी सोच के दायरे में रहकर एक विचार ने अभ्यंतर में दस्तक दी, कि सृष्टि का आरम्भ शब्द से हुआ है, तो वो शब्द निश्चित रूप से हम सबके जीवन से जुड़ा होगा। फिर मैंने सोचा ऐसा कौन सा शब्द है जो बच्चा बिना बताये ही बोल देता है, जो पहला शब्द बच्चे के मुख से निकलता है वो होता है- माँ । मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ सृष्टि का आरम्भ भी इसी शब्द से हुआ है। गुरुदेव कहते हैं कि जब हमारी माँ के दो हाथ दो पैर हैं तो जगत कि माँ भी हमारी माँ से अलग नहीं होगी, उसके दस हाथ दस सर नहीं हो सकते, वो तो कल्पना है। माँ वो शब्द है जो हमें तब याद आता है जब हमें एक छाँव कि ज़रूरत महसूस होती है, जब हमें सुकून कि ज़रूरत होती है। सोचिये जब आप किसी चीज़ से भयभीत जाते हैं या अचानक कोई आपके सामने आ जाए तो मुह से निकलता है- बाप रे। पर जब हमें चोट लगती है या हम दर्द या तकलीफ में होते हैं तो हमारे मुख से निकलता है- माँ। आज के दिन इस सुकून भरी छांव को नमन, उस ममता के आँचल को नमन.कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-4350405799120331842011-03-08T01:40:00.000-08:002011-03-08T01:51:17.108-08:00अपनी बात अपने साथ.<strong><span style="color:#ff0000;">" याद रखो दुनिया को, दुनियादारी को हम पकड़ते हैं, दुनिया या दुनियादारी हमको नहीं पकडती है"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" मोह ना बचे तो आत्मा शरीर को त्यागने का उद्यम करने लगती है, मोह ही आत्मा और प्राण को शरीर से बांधकर रखता है"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" किसी भी चीज़ से भागो मत, किसी भी चीज़ को त्यागो मत, उस चीज़ से ऊपर उठो"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" प्रेम का अर्थ होता है, पर अर्थात दुसरे में अहम् का समर्पण। किसी और में अपने मैं को विलीन कर देना ही प्रेम है"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" विचार उस पार पहुंचाने की कश्ती है, जिसे किनारे पहुंचकर त्यागना पड़ता है, अगर पकडे रहोगे तो एक दिन किनारे पर ही डूब जाओगे"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">"निर्विचार की यात्रा विचार से ही आरम्भ होती है, निराकार की यात्रा आकार याने आकृति से ही आरम्भ होती है, निर्विकार की यात्रा विकार से ही आरम्भ होती है"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" उसकी इच्छा और कृपा के बिना उसे कोई नहीं जान सकता है, अपनी इच्छा और कृपा के बिना अपने को भी नहीं जाना जा सकता है"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" भागो मत, त्यागो मत, भागोगे तो वो चीज़ और पीछा करेगी, त्यागोगे तो उस चीज़ का मोह और जोर से जकड लेगा, ना भागो ना त्यागो बस जागो , जागो ,जागो। "</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">प्रेम तत्सत</span></strong>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-73983514689185841942011-03-05T02:02:00.000-08:002011-03-05T02:22:56.913-08:00उत्तिष्ठ जाग्रतः : जागो और पा लो जिसे पहले ही पा चुके हो.प्रिय मित्रों,<br />सदियों से सब कहते आ रहे हैं, फिर भी मैं आज उस बात को दोहराने का प्रयास कर रहा हूँ। जागो मेरे प्यारो। एक जागृत पुरुष के पास बैठ कर, मैंने जो प्रकाश पाया है, मैं चाहता हूँ सब वो पायें। मैं आह्वान कर रहा हूँ आओ और जानो खुद को आओ और उस परदे को हटाओ जिसने तुम्हारी भगवत्ता को ढांक लिया है। हम सब उस अज्ञात के अंश हैं, दिक्कत इतनी ही है कि, हम यह जान कर भी अनजान हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि समंदर हमारे पास है, पर भीतर प्यास ही नहीं उठती है। जब एक जागृत पुरुष के पास आप जाते हैं, तब आपके भीतर भी एक प्यास कि याद उमड़ती है, सारा आध्यात्म इसी प्यास को जगाने कि जुगत है। एक बार अभीप्सा जाग गयी तो अमृत भी दूर नहीं है। मैंने उस प्रकाश उस प्यास के दर्शन किये हैं अपने गुरुदेव के सानिध्य में, और चाहता हूँ कि आप सब में उस प्यास का स्फुरण हो। कब तक सोये पड़े रहोगे पागलों, अब वक्त आ गया पागल होने का, पागल याने पा गल अथात जो पाने कि जिद में गल गया, जिसका अहंकार गल गया उसने पा लिया, जो पा गया और समंदर में मिल गया याने पा कर गल गया। एक सद्गुरु एक जागृत पुरुष एक सिद्ध और कुछ नहीं करता आप बस उसके पास बैठ जाएँ और उसके भीतर कि शान्ति और प्रकाश की एक झलक पा सके तो आपके जीवन में भी उस अज्ञात के प्रति आकांक्षा जाग जायेगी। कुछ नहीं करना है बस जागना है, सबकुछ मिला हुआ है, सबकुछ आपके भीतर है, बस उसके प्रति जो उदासीनता है उसको ख़त्म करना है। तुम वही हो, आओ और अमृत के समंदर में एक छलांग लगा लो। एक जागृत व्यक्ति का सानिध्य कितना प्रीतिकर होता है, इसका अनुभव कर लो। उसके भीतर के प्रकाश को देख कर शायद तुम्हे अपने भीतर के प्रकाश की याद आ जाए। कब तक सोये पड़े रहोगे अब तो जागो। तुम्हे कुछ पाना नहीं है, तुम पहले से ही सबकुछ लेकर आये हो, बस उसे जान लो तो जीवन शांति आनंद और अमृत से भर जाएगा।<br />अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो परम<br />प्रेम तत्सत<br /><span style="font-size:0;"></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com7tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-27044275159808070852011-02-28T23:42:00.000-08:002011-03-01T01:59:28.959-08:00अनहद बाजा अंतर बाजे" प्रार्थना हर धर्म हर जात हर सम्प्रदाय में समान रूप से स्वीकारी गयी है। सभी धर्मो ने प्रार्थना को किसी ना किसी रूप में अपनाया है। इसाई धर्म का तो आधार ही प्रार्थना है। <strong><span style="color:#ff0000;">प्रार्थना पर अर्थ से जुडी भावना का नाम है</span></strong>, इसके विपरीत याचना स्वार्थ से जुडी भावना का नाम है। <strong><span style="color:#ff0000;">पर अर्थ अर्थात दुसरे के हित के लिए दुसरे के अर्थ के लिए किया गया निवेदन प्रार्थना है</span></strong>, और खुद के अर्थ याने स्वार्थ स्व अर्थ से की गयी प्रार्थना भी याचना से ज्यादा कुछ नहीं होती है। प्रार्थना का अर्थ स्वयं के लिए परमात्मा के प्रति आभार से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता, <strong><span style="color:#ff0000;">प्रार्थना गहरे में परमात्मा से संवाद है ,</span></strong> संवाद वहीँ संभव है जहाँ याचना या निवेदन की संभावना ना हो। क्योंकि संवाद दो समान स्टार के व्यक्तियों के बीच होता है, जबकि निवेदन या याचना में एक छोटा और दूसरा बड़ा होता है। हम परमात्मा से तब तक दूर रहते हैं जब तक हम उसे बड़ा मानते हैं, खुद को दीन हीन समझते हैं। अगर आप परमात्मा की संतान हैं तो दीन हीन होने का प्रश्न ही कहाँ। प्रार्थना भीतर का विषय है, मौन में घटने वाली स्थिति है, मन और वाणी का सायुज्य होने पर प्रार्थना का आरम्भ होता है। प्रार्थना में पर हित की भावना की प्रधानता होती है "<br /><span style="font-size:+0;"></span><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" भय से भागे नहीं उसका निरिक्षण करें , उसके साथ हो लीजिये, भय से एकाग्रता बढती है, भय का पाश बहुत से बन्धनों से मुक्त करने में सक्षम है।"</span></strong><br /><span style="font-size:+0;"></span><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" ध्यान जाप से ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो अंतर की गन्दगी को बाहर फेंकती है, यह गन्दगी क्रोध, मौन, झुंझलाहट हास्य, रुदन आदि विभिन्न रूप धारण कर लेती है। "</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" गुरु व्यर्थ के उपदेश देने की जगह व्यवहार और आचरण से सिखाता है, संभव है की वो कटु वचन और व्यवहार भी प्रस्तुत कर दे, परन्तु यह उसका तरीका है। "</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" अभ्यास करते रहिये गलतियां सुधरेंगी और आप उस कला में पारंगत हो जायेंगे, अभ्यास नवीन गुर भी दे जाता है, वो गुर जिनसे दुसरे लोग भी दिशा प्राप्त कर सकते हैं।"</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है, राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः घटेगा इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।" </span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;">प्रेम तत्सत</span></strong><br /><strong><span style="color:#ff0000;"></span></strong><br /><span style="font-size:+0;"></span><br /><span style="font-size:+0;"></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-29389169404748855682011-02-23T22:43:00.000-08:002011-02-23T22:50:01.950-08:00अपनी बात : धर्म और प्रेममित्रों,<br />अघोर उपनिषद् के छठवे सूत्र को लिखने बैठा था, तभी मन में एक विचार आया कि सदियों से मनुष्य के जीवन में एक बात हमेशा से रही है और वो है प्रेम। इसा मसीह ने कहा " <strong><span style="color:#ff0000;">अपने पड़ोसियों से प्रेम करो </span></strong>"। लोगो ने समझा जो पड़ोस में रहता है उस से प्रेम करना है। मेरे विचार में यह बहुत कीमती वचन था इसा का, पडोसी का अर्थ मेरे हिसाब से होता है जो आपके पास है, आप जहाँ रहते हैं वहां पास में रहने वाला पडोसी , आप जहाँ काम करते हैं वहां आपके पास काम करने वाला पडोसी, आप कहीं सफ़र पे जा रहे हैं तो आपके बाजू बैठा सहयात्री पडोसी हो गया, आप कहीं खड़े हैं तो आपके पास खड़ा व्यक्ति पडोसी हो गया, और इन सबसे ऊपर हैं आप जो अपने सबसे ज्यादा पास होते हैं, आपसे बढ़कर आपसे ज्यादा नजदीकी पडोसी आपके लिए कोई और नहीं, तो सबसे पहले प्रेम खुद से करें। वैसे भी कोई भी काम करना हो तो खुद से ही उसका आरम्भ उचित होता है, जब स्वयं पर परिक्षण खरा उतर जाए तब दुसरे पर करे। तो सबसे पहला प्रेम खुद से , पर आखिर ऐसी क्या बात है इस प्रेम में की हर धर्म हर मजहब हर सम्प्रदाय ने प्रेम की शिक्षा दी। बस दिक्कत यह हो गयी की प्रेम की शिक्षा ही दी गयी दीक्षा नहीं। जबसे से सृष्टि की रचना हुई है, तबसे दो बातें हमेशा साथ रही हैं, एक आकर्षण रहा दुसरा प्रेम। आकर्षण सदा से मस्तिष्क से आरम्भ होता आया है, और प्रेम ह्रदय से। आकर्षण वासना से प्रेरित होता है, वासना से मेरा अर्थ विविधता से ,प्रेम भावना से प्रेरित होता है, हमारे ह्रदय से उठते भाव किसी और के ह्रदय में स्थान पाने को इच्छुक हो जाते हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं, की वो हमारे भाव को जान ले। यहाँ कुछ पाने की ख्वाहिश नहीं होती है, आकर्षण में पाने का भाव होता है। आकर्षण इन्द्रियों से शुरू होता है, चाहे वो आखें हो या कान या स्पर्शेन्द्रिय। हमें किसी की आवाज़ अच्छी लगती है तो किसी की खूबसूरती या किसी का स्पर्श, पर प्रेम मौन में घट जाता है, प्रेम बंद आखों में हो जाता है, प्रेम उपस्थिति मात्र से अंकुरित हो जाता है। कारण सिर्फ इतना है की प्रेम इन्द्रिय से नहीं ह्रदय से उठता है, प्रेम का मूल ह्रदय होता है। प्रेम मनुष्य का मूल स्वभाव है, कृष्ण गीता में कहते है, की स्वधर्म में मर जाना बेहतर है बजाय दुसरे धर्म में जीने के। धर्म का अर्थ बहुत गहरे में स्वभाव होता है, बल्कि मूल अर्थो में धर्म का अर्थ स्वभाव ही होता है। प्रेम एक मात्र ऐसा पडाव है, जहाँ के लिए आपको किसी को प्रेरित नहीं करना पड़ता है, बिरला ही ऐसा कोई होगा जो किसी के प्रेम में नहीं पड़ा होगा। प्रेम में जाना स्वाभाविक है, क्योंकि यह अज्ञात की प्रेरणा है, आपका जन्म ही अज्ञात के प्रेम में पड़ने के लिए ही हुआ है। अज्ञात ने आपके जीवन में वो बात का समावेश किया है जो उसकी प्रतीति कराती हैं। धर्म और प्रेम का बड़ा गहरा नाता है। अगर मैं यह कहूँ कि आध्यात्म जगत के ज्यादातर रास्ते प्रेम से ही निकले हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। <span style="color:#ff0000;">प्रेम का विशुद्ध रूप है भक्ति, और भक्ति को गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि गहरे में भक्ति प्रेम का ही प्रदर्शन है।</span> हमारा मूल स्वभाव प्रेम है, तो फिर हम विषाद में क्यों जी रहे हैं। विषाद का एक मात्र कारण जो मुझे दीखता है वो है, बाहर कि तरफ दौड़ना। हमारी सारी खोज बाहर कि है। हमें दुःख बाहर से मिलता है, हमे दुःख किसी और से मिलता है, और हम उस दुःख से मुक्त होने के लिए सुख ढूँढने लगते हैं, पर विडम्बना यह है ,कि , हम सुख कि दौड़ भी बाहर कि तरफ लगाते हैं, सुख भी तलाशने बाहर की और जाते हैं । और जो कुछ भी बाहर से मिलेगा वो अपना नहीं होगा , वो उधार का होगा किसी दुसरे का होगा।<br /><br />प्रेम होना स्वाभाविक है, उसके लिए बोलने बताने या मार्गदर्शन करने कि जरुरत नहीं पड़ती है। प्रेम की भाषा ही नहीं होती कोई, उसके लिए क्योंकि शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती, जहाँ शब्द काम नहीं देते तो आँखे काम दे जाती है, जहाँ आँखे काम नहीं देती वहां स्पर्श काम दे जाता है और जहाँ स्पर्श काम नहीं देता वहां ह्रदय की भावनाए काम कर जाती हैं। पर हर हाल में प्रेम घटता है। हर कोई अपने जीवन में प्रेम का आगमन देखता है। एक कथा याद आती है राबिया की, राबिया मुसलमान सूफी संतो की जमात में बड़ा ऊँचा ओहदा रखती हैं। राबिया ने एक बार कुरआन से एक अक्षर को काट दिया था, उसके खिलाफ मौलवी खड़े हो गए की तेरी इतनी जुर्रत। पर राबिया ने जो जवाब दिया वो बड़ा सुन्दर है, मैंने जहाँ जहाँ शैतान लिखा था वो काट दिया, क्योंकि जिस दिन से अल्लाह से मोहब्ब्बत हुई है, मुझे हर तरफ खुदा ही नज़र आता है, शैतान तो कहीं दिखता ही नहीं। यह प्रेम का मार्ग है। अद्वैत का सही अर्थ प्रेम में ही मिलता है। कबीर भी कहते हें " <strong><span style="color:#ff0000;">मैं था तब हरी नहीं, और हरी था तो मैं नाय, प्रेम गली अति सांकरी या में दो ना समय</span></strong>" प्रेम का पथ ही अद्वैत का पथ है। मैं स्थूल और सूक्ष्म प्रेम में बहुत ज्यादा अंतर नहीं देखता हूँ, बल्कि मैं आज के प्रेमियों को अपना आदर्श मानता हूँ। आज के प्रेमी जोड़े मुझे आध्यात्म की प्रेरणा देते हें। मैं जब ही पार्क में होटल में कॉलेज के बगीचों के झुरमुट के पास बैठे प्रेमियों को देखता हूँ तो मुझे प्रेरणा मिलती है, प्रेम ऐसे ही होता है। वो प्रेमी पूरी दुनिया को भूल कर एक दुसरे की आँख में आँख डाले बैठे होते हें, उनके पास से तूफ़ान भी गुज़र जाए तो उनको खबर नहीं लगती, ऐसा खो जाते हें वो एक दुसरे में, जैसे मानो गहरे ध्यान में चले गए हो। एक कथा याद आती है यहाँ, एक बादशाह नमाज पढ़ रहे होते हें, उसी वक्त एक प्रेमिका अपने प्रेमी के ध्यान में बेसुध जाते रहती है, अचानक उसका पैर बादशाह की दरी पर रखा जाता है, जिसमे बैठ कर वो नमाज़ पढ़ रहा होता है। बादशाह बिगड़ पड़ता है उस लड़की पर, की ऐ कमबख्त लड़की देख कर नहीं चलती ध्यान किधर है, मैं नमाज़ पढ़ रहा था, खुदा की इबादत में था। लड़की हंस पड़ती है, कहती है, हुजुर मैं तो अपने प्रेमी के खयालो में खोई हुई थी तो मुझे पता नहीं चला पर आप नमाज़ के नाम पर क्या कर रहे थे, अगर आप खुदा के खयालो में खोये होते तो कभी ना जान पाते की मेरा पैर आपकी दरी पे रखा गया। बादशाह बहुत शर्मिन्दा हो जाता है। बात है भी सच्ची और अर्थपूर्ण , अगर इबादत में ही डूबना है तो उस प्रेमिका की तरह डुबो की अपनी सुध बुध भी खो बैठो। प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए सारे ज़माने को दुश्मन मान बैठता है, उसको बर्दाश्त नहीं की कोई उसके प्रेम में बाधा बने, जो उसकी प्रेमिका को पसंद ना करे जो उसकी प्रेमिका के खिलाफ बोले वो उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। ऐसे में वो इंसान मुझे तुलसी बाबा का सबसे बड़ा चेला नज़र आता है,<strong><span style="color:#ff0000;"> ' जाके प्रिय ना राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही "</span></strong> मैं इस भौतिक प्रेम के पक्ष में कुछ नहीं कह रहा, मैं कहना यह चाहता हूँ की अज्ञात से प्रेम करना हो तो बिलकुल इसी तरह करना चाहिए। ऐसा ध्यान होना चाहिए की बाजू से तूफ़ान आ जाए तो भी हमें फर्क ना पड़े, भीतर इतना गहरे उतर जाएँ की बाहर का भान ही ना रहे।<br /><span style="font-size:+0;"></span><br />दुनिया में इसलिए भक्ति कीर्तन प्रार्थना की परम्परा इतनी विकसित हो सकी क्योंकि उसके पीछे परमात्मा के प्रति प्रेम की भावना थी। ध्यान बहुत वैज्ञानिक और रुखा होता है, पर अगर इसमें प्रेम रस मिल जाए तो ध्यान भक्ति के कमल को खिला देता है। उसी तरह अगर प्रेम में भक्ति मिल जाए तो ध्यान का कमल खिलने में देर नहीं लगती है। प्रेम हमारा स्वभाव है, परन्तु वो आज विषाद बना हुआ है, क्योंकि हम आरम्भ गलत करते हें, शुरू खुद से करना है, पर हम शुरू दुसरे से शुरू करते हैं। सिर्फ सिर्फ पत्नी के दीवाने थे, पत्नी के प्रेम में पागल थे, पत्नी ने उलाहना दी और कहा की इतना प्रेम राम से किया होता तो क्या बात होती, बस तुलसी जाग गए। कुछ ऐसे ही हम सब सो रहे हैं, सदियों से जन्म जन्मान्तरो से हम प्रेम करते आये हैं, कभी अज्ञात के प्रति प्रेम प्यास बनकर उठा ही नहीं। अगर जान ले की इतने जन्मो से वही कर रहे हैं, बाहर की और यात्रा तो भी अन्दर जाने के प्रेरणा मिले, पर प्रेम की परिभाषा ही गलत कर दी साधुओ ने संतो ने। प्रेम सिर्फ प्रेम होता है, वो सिर्फ बरसना जानता है, वो भेद नहीं करता, दिक्कत इतनी ही है की कहाँ बरसे यह उसे नहीं पता। तुलसी की तरह हमें प्रेरित करने वाला कोई प्रेमी चाहिए, तुलसी को कोई और कहता तो उन्हें बात समझ नहीं आती।<br /><br />बात सिर्फ़ इतनी है कि भौतिक प्रेम में उतरेंगे तो बाहर रह जाएँगे और वासना का उदय होगा, आंतरिक प्रेम में उतरेंगे तो भक्ति का उदय होगा । प्रेम वही है बस पात्र बदल जाते हैं, प्रेम के बिना आध्यात्म नीरस हो जाता है। मैं नहीं कहता की भगवान से प्रेम करो । मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि खुद से प्रेम करो। जो भीतर होगा वही बाहर प्रतिबिंबित होगा। शुरूवात सदा से नकली से होती है, सीखने के लिए अक्चा है यह, पर अगर लक्ष्य याद रहे तो फिर विशुद्ध प्रेम में शाश्वत प्रेम में उतरने में वक्त नहीं लगेगा। भक्ति प्रेम का सबसे ऊँचा शिखर है। प्रेम से ही श्रद्धा का जन्म होता है, विश्वास का जन्म तो अहम से होता है. आज बस इतना फिर कभी इस विषय पर .<br /><br />प्रेम ततसतकमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-68079635465649013092011-02-22T02:30:00.000-08:002011-02-22T02:55:04.084-08:00अपनी बात : ना आँखों देखी ना कानो सुनी"<span style="color:#ff6600;"><strong> जिस क्षण मन को बाँधना शुरू करोगे, उसी क्षण से आत्मा के मुक्त होने का प्रमाण मिलने लगेगा</strong></span>"<br /><br /><br />" <span style="color:#ff9900;"><strong>हरी को भजे तो हरी को होई</strong></span> " पर मैं कहता हूँ " <span style="color:#ff6600;"><strong>हरी सो भजे तो हरी सो होई</strong></span> "<br /><br /><br />"<span style="color:#ff0000;"><strong>चल मन अब अपने घर, छोड़ जगत का रेला रे, अपने घर ही पिया मिलेंगे, जग है दो पल का मेला रे</strong></span> "<br /><br /><br />" <strong><span style="color:#cc6600;">शक्ति को नियंत्रण में रखना शक्ति की कृपा से ही संभव होता है</span></strong>"<br /><br /><br />" <strong><span style="color:#ff0000;">बहुत सारे देवी देवताओं के चक्कर में मत रहिये, गुरु के चक्कर लगाते रहिये वो आपको सारे चक्करों से मुक्ति दिला देगा</span></strong>"<br /><br /><br />"<strong><span style="color:#ff6600;"> गुरु का अर्थ है जिसमे गुरुत्वाकर्षण हो , जो इस पञ्च महाभूत के जगत की सबसे बड़ी शक्ति है</span></strong>"<br /><br /><span style="color:#ff0000;"><strong>"गुरु आपको शिक्षा नहीं दीक्षा देता है, गुरु आपको रूपांतरित कर देता है "</strong></span><br /><br /><span style="color:#cc6600;"><strong>" शक्ति के बिना शिव शव हो जाते हैं, हम भी उसी शक्ति के बिना शव हो जाते हैं, वो शक्ति है प्राण, प्राणमयी भगवती की उपासना शिवत्व को उपलब्ध कराती है"<br /><br /></strong><br /><br /></span><br /><br /><strong><span style="color:#3333ff;">प्रेम तत्सत</span></strong><br /><span style="font-size:0;"></span><br /><span style="font-size:0;"></span><br /><br /><br /><br /><br /><span style="font-size:0;"></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com6tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-27367500462482702892011-01-08T00:09:00.000-08:002011-01-08T00:24:09.179-08:00अपनी बात- अनुभूति के अंकुर<span style="color:#000000;">" गुरु ज्ञान नहीं देता, गुरु बीज देता है, जिसे भीतर बोने से ज्ञान स्वतः प्रस्फुटित होता है"</span><br /><span></span><br /><span>" विश्वास की मित्रता ना करे, विश्वास अक्सर टूट जाते हैं, श्रद्धा को अपने सहेली बनाए और फिर जाएँ अज्ञात को खोजने, श्रद्धा चाहे थोड़ी हो या ज्यादा वो आपको अज्ञात तक ले जाने में सक्षम है"</span><br /><span></span><br /><span>" विश्वास अधिकार सिखाता है, प्रभुता दिखाता है, श्रद्धा समर्पण सिखाती है, प्रभु दिखाती है" </span><br /><span></span><br /><span>" विरह अवसर है मिलन का, विरह आपकी श्रद्धा की कसौटी है, विरह प्रेम पथ में उत्प्रेरक का कार्य करता है, जब विरह असहनीय हो जाता है, सिवा मिलन के और कुछ भी नहीं सूझता है, तभी अज्ञात का अंतर में प्रवेश होता है" </span><br /><span></span><br /><span>" इश्वर को पाने के लिए लोग अपनी सुध बुध भी खो देते हैं, पर ई-स्वर को पाने के लिए, आपको अपने अलावा सबकुछ भूलना होगा"</span><br /><span></span><br /><span>" साधक पाने के लिए साधना करता है, अवधूत देने के लिए, देने के लिए पाना आवश्यक है, अवस्था की बात है "</span><br /><span></span><br /><span>" साधना में सिर्फ लेना ही लेना है, प्रेम में सिर्फ देना ही देना है "</span><br /><span></span><br /><span>" जिसे वो कुछ नहीं देता, उसे वो खुद को दे देता है, वो आपका हो जाता है"</span><br /><span></span><br /><span>प्रेम तत्सत </span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-9123397167156087812011-01-06T05:13:00.000-08:002011-01-12T03:23:27.369-08:00अपनी बात - " माला के कुछ मनके बिखरे, तब जाकर मन एक हुआ"<span style="font-size:100%;">प्रिय मित्रों, </span><br /><span style="font-size:100%;">आध्यात्म जगत अज्ञात की अभिव्यक्तियों का साधन है। जिस तरह से अज्ञात ने इस अस्तित्व को निर्मित किया है, या कहें की जिस तरह यह सम्पूर्ण अस्तित्व अज्ञात के फैलाव के रूप में प्रगट हुआ है, कुछ उसी तरह उसकी अभिव्यक्तियाँ भी प्रगट हुई हैं। अस्तित्व असंख्य वस्तुओं, जड़ चेतन, भावनाओं, अभिव्यक्तियो , संवेदनाओं का एक समूह है। जगत की हर संवेदना हर भावना हर स्पंदन अज्ञात की अभिव्यक्ति है। ठीक इसी तरह आध्यात्म भी हज़ारों हज़ार प्रकार का फैलाव लिए हुए है, इन्द्रधनुषी रंगों की तरह बिखरा हुआ है, असंख्य सीढियां , असंख्य घाट , असंख्य मार्ग , चाहे आप किसी का अवलंबन लें, गंतव्य सदा से एक ही रहा है। अस्तित्व की हर क्रिया अज्ञात की और ही प्रेरित है। हमने जानने की समझने की चेष्टा नहीं की, अन्यथा आरम्भ भी अज्ञात से है, मध्य भी उसी में हैं, और अंत भी उसमे ही होता है। अज्ञात तक पहुँचने के बहुत से मार्ग हुए हैं, उन मार्गो से बहुत सी पगडण्डी भी निकल गयी हैं। अज्ञात के रास्तो के आजू बाजू असंख्य खजाने बिखरे पड़े हैं, उन्ही खजानो तक यह पगडण्डी ले जाती हैं। कुछ ऐसे भी रास्ते बने जो हमें इन पगडण्डी तक ले जाते हैं, जिसके आगे अज्ञात का मार्ग होता है। अब निर्णय आपका है, कि क्या आप उस पगडण्डी को छोड़ कर मुख्य मार्ग पे आना चाहते हैं या नहीं। इसी तरह कि एक पगडण्डी है- मंत्र , जो आपको अज्ञात के मार्ग पर ले जाने में सक्षम है। जब से जगत का आध्यात्मिक इतिहास उपलब्ध है, तबसे परमात्मा तक जाने के दो मार्ग प्रचालन में रहें हैं, एक भक्ति का मार्ग है, जिसमे से प्रार्थना कि पगडण्डी निकली है। दुसरा मार्ग है ज्ञान का , जिसमे से मंत्र कि पगडण्डी निकली है। आज हम मंत्र पे चर्चा कर रहे हैं। मंत्र का अर्थ होता है, कुछ शब्द अथवा शब्दों का समूह और थोड़ी गहराई में जाएँ तो अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित मात्रा , निश्चित ध्वनि, निश्चित ले के साथ दोहराया जाता है। अर्थात अक्षर अथवा अक्षरों का समूह जिन्हें एक निश्चित ले में बार बार ध्वनित किया जाए तो वह आपके अथवा दुसरे के जीवन में प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव के घटित होने के लिए जो सबसे महत्वपूर्ण घटक है वो है पुनरावृत्ति अर्थात दोहराना। बिना पुनरावृत्ति के मन्त्र में कोई प्रभावकारी विशेषता उत्पन्न नहीं होती है। यही मंत्र विज्ञान का मूल है। जैसा कि मैंने कहा अस्तित्व कि हर वास्तु, व्यवहार, संवेदना, घटना, क्रिया, प्रतिक्रया अज्ञात कि अभिव्यक्ति है, उसी तरह मन्त्र भी अज्ञात कि अभिव्यक्ति का अंग है, मन्त्र अस्तित्व कि कार्यप्रणाली का प्रतिबिम्ब है। जिस तरह पूरी प्रकृति एक चक्र में आबद्ध है, जन्म मरण फिर जन्म मरण ऐसी ही पुनरावृत्ति चलती जाती है सदियों तक, मन्त्र विज्ञान भी पुनरावृत्ति कि एक कड़ी है। हम अपनी दैनिक जीवनचर्या को देखे तो पायेंगे कि हम रोज़ वही कार्य दोहराए चले जा रहे हैं, क्रमबद्ध रूप से कार्यो कि पुनरावृत्ति कर रहे हैं, जब तक यह दोहराना चलता रहता है, हमें अभीष्ट कि प्राप्ति होती रहती है। जहाँ यह चक्र रुका वहां हमारी अभीष्ट प्राप्ति स्थिर हो जाती है। मन्त्र साधना भी उसी तरह अभीष्ट प्राप्ति का एक साधन है, यह अज्ञात कि और जाने वाले मुख्य मार्ग कि एक पगडण्डी है, जिसे मुख्य मार्ग पर पहुँचते ही त्यागना पड़ता है। मंत्र मुख्यतः शक्ति संचय से सम्बंधित होता है। मेरे पूज्य गुरुदेव महुआ टोली वाले औघड़ बाबा कहते हैं, "<strong><span style="color:#ff0000;"> जाप से आप शक्ति संगृहीत करते हैं और ध्यान से उस शक्ति का वितरण</span></strong> "।मूलतः मंत्र साधना शक्ति संचय के लिए कि जाती है अथवा शक्ति पूर्वक अपने किसी अभीष्ट कार्य को करने हेतु, शक्ति पूर्वक से मेरा अर्थ गति देने से है, जब आप शक्ति का उपयोग करना चाहते हैं तब ध्यान आवश्यक बन जाता है। ध्यान में व्यक्ति शांत और आनंदित होता है, क्योंकि वो वितरण करता है बांटता है, और ज्ञात रहे देने वाला सदैव प्रफुल्लित होता है। आप जब किसी को कुछ देते हैं तो अनुभव करियेगा कि,भीतर एक आनंद सा उठता है, देने के बाद खुद को खाली करने के बाद, शुन्य हो जाने के बाद उस रिक्त स्थान उस शून्य कि पूर्ति आनंद से होती है, शान्ति से होती है, अज्ञात के स्पंदन से होती है। इसलिए ध्यान सदा से शांति और आनंद का स्त्रोत बना और मंत्र शक्ति तथा प्रभुता का। एक स्थिति पर पहुँचने के बाद आप मन्त्र कि पुनरावृत्ति बंद करके विश्राम में चले जाते हैं, ध्यान में उतर जाते हैं, यह एक रहस्य है, खैर इस पर चर्चा फिर कभी करेंगे, आज मन्त्र पर ही बात करते हैं। </span><br /><span style="font-size:100%;"></span><br /><span style="font-size:100%;">मेरे विचार में मंत्र का एक अर्थ और होता है, मंत्र अर्थात जो मन को एकत्रित करे, जो मन को केन्द्रित करे। मन जो बिखरा हुआ अपने हज़ारों प्रतिरूपों के साथ, हज़ार प्रतिरूप का अर्थ है कि आपकी चेतना शक्ति बिखर कर अलग अलग विचार अलग अलग इन्द्रिय अनुभवों के साथ संयुक्त होकर बिखरी हुई है। जो शक्ति इस फैलाव में लगी है वो मन के केन्द्रित होते ही स्वयं भी केन्द्रित होने लगती है। जो शक्ति जो चेतना अभी तक मन के द्वारा बाहर कि और लगी हुई थी, मन्त्र जाप के द्वारा वो भीतर कि और बहने लगती है, और आप भीतर अनंत शक्ति का अनुभव करने लगते हैं। किसी भी शब्द अथवा अक्षर को बार बार दोहराने से मन उस क्रिया में एकाग्र होने लगता है, पर जब मन को यह खबर लगती है, कि वो तो एकाग्र होने जा रहा है, तो वो अपने बचने के रास्ते तलाशने लगता है, सबसे पहले वो देखता है कि एक शब्द कि पुनरावृत्ति हो रही है बार बार, तो मन सोचता है कि क्या यह पुनरावृत्ति मिरे बिना भी हो सकती है। बस यहीं मन अपना पहला वार करता है, आप देखेंगे कि मंत्र जाप के दौरान आपकी जिव्हा तो बराबर जाप कर रही होती है परन्तु मन किसी और उधेड़ बुन में लग जाता है, वो कहीं और भ्रमण करने लगता है। इस से बचने के लिए मानसिक जाप करने कहा गया, क्योंकि स्थूल पर मन जल्दी नियंत्रण पा लेता है, सूक्ष्म पर उसे भारी मशक्कत करनी पड़ती है। जब आप मानसिक जाप करते हैं, तब चेतना मन्त्र के साथ विद्यमान होती है, अब मन एक नया खेल खेलने लगता है,वो ऊब पैदा करता है, मन्त्र आपके लिए लोरी बन जाता है, धीरे धीरे आपको नींद आने लगती है, कुछ और गहरा करने वाले स्व सम्मोहन कि अवस्था में चले जाते हैं, परन्तु दोनों ही अवस्था में मंत्र का चेतना से सम्बन्ध टूट जाता है। यही वो बिंदु है जहाँ से आपको निर्णय लेना होता है क्या करें, अगर आप अपनी चेतना को स्थिर रख सके, साक्षी भाव से देखते रहे, खुद को जागता हुआ रख सके तो मन एकाग्र हो जाता है। बस यही वो बिंदु है जहाँ वो बात घटती है जो मैंने सबसे पहले लिखा है माला के कुछ मनके बिखरे तब जाके मन एक हुआ। यह वो जगह है जहाँ माला छूट जाती है, क्योंकि मन्त्र आपके प्राणों में प्रवेश कर जाता है। जैसे ही मंत्र प्राणों के साथ गति करने लगता है वैसे ही आपके रोम रोम से मात्र स्पंदित होना आरम्भ कर देता है। स्थूल रूप से प्राण का अर्थ होता है स्वांस, इसलिए जब भी आप ध्यानस्थ होते हैं तो मंत्र जाप आपको करना नहीं पड़ता है, वो आपको अपनी स्वांसो में दिखने लगता है, वो स्वांस प्रस्वांस में परिलक्षित होता है, यही मंत्र विज्ञान कि सर्वोच्च सीढ़ी है, जिसे अजपाजप कहा गया है। जब आप मंत्र जाप नहीं करते और बिना प्रयास मंत्र आप हिस्सा बन जाता है, तब अलग से कुछ करने कि जरुरत नहीं होती है, क्योंकि जैसे ही आप स्वांस पर ध्यान देते हैं, आपको मंत्र के अनवरत जप कि प्रतीति होती है। और जिस तरह स्वांस लेने और छोड़ने पर ऊब नहीं होती थकावट नहीं होती उसी तरह अजपाजप आपका एक अभिन्न अंग बन जाता है। वो अस्तित्व के साथ जुड़ जाता है जिसपर आपका बस नहीं चलता, तब वो प्रकृति के साथ गतिमान होने लगता है। बस आप ज़रा सा भीतर सरक कर देखते हैं, तो मन्त्र का आवागमन दीखता है, भीतर सुनते हैं तो रोम रोम से मंत्र प्रतिध्वनित होता है, महसूस करने जाते हैं तो हर पोर से मन्त्र का स्पंदन होता है, स्वतः बिना किसी प्रयास के बस यही अवस्था है जिसे संतो ने अजपजाप कहा है। कबीर ने अपनी भाषा में कहा</span><br /><span style="font-size:0;"></span><span style="font-size:100%;">" <span style="color:#000099;"><strong>मनका मनका छाडी के , मन का मनका फेर</strong></span>"</span><br /><span style="font-size:100%;">जैसे ही मन को माला बना लेंगे वैसे ही आप अजपाजप कि और बढ़ने लगेंगे। जैसे ही मन प्राणों के साथ संयुक्त होता है, बाहर कि सब शक्ति ,चेतना भीतर कि और बहने लगती है, मन शक्ति हीन होकर आत्मकेंद्रित हो जाता है। वो मन्त्र जो बिखरा हुआ था, जिसका स्वयं का चरित्र पुनरावृत्ति है, जिसका स्वयं का शौक एक ही चीज़ को दोहराए जाना है, वो बिखरा हुआ मन केन्द्रित होने लगता है। अपने केंद्र पे एकाग्र हो जाता है। जैसे ही माला छूटती है अजपाजप घटता है, या ज्यादा बेहतर है कि कहूँ जैसे ही अजपाजप लगता है माला विलीन हो जाती है। ठीक इसी प्रकार जब मन अपने असंख्य प्रतिरूपों को समेटकर एक होता है तब समाधि कि सुगंधी प्रगट होती है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं"<span style="color:#ff0000;"> <strong>मन को मन में रखो, प्रयास करो मन मन में रहे</strong></span>" यही वो स्थिति है कि जब असंख्य मन अपने केंद्र में आकर एक हो जाते हैं, सारे प्रतिरूप मन में आकर केन्द्रित हो जाते हैं, जब सारे मन मन में होते हैं, और मन केन्द्रित होता है, तभी ध्यान का पुष्प खिलता है, तभी समाधि कि झलक मिलती <span style="font-size:0;">है।</span></span><br /><span style="font-size:100%;"><span style="font-size:0;"></span></span><br /><span style="font-size:100%;"><span style="font-size:0;"></span>साधना का मूल उद्देश्य शक्ति को भीतर कि और समेत कर उसे कुण्डलिनी से संयुक्त कर ऊपर के मार पर अग्रसर करना होता है। परन्तु हमने मुख्य लक्ष्य के बजाय उस मार पर मिलने वाली सिद्धियाँ शक्तियां प्राप्त करने में अपना समय और श्रम गवाया है। कुछ जो मन्त्र मार्ग को समझ नहीं सके वो या तो ऊब गए या सो गए उनकी बात करना बेकार है, ऐसे लोगो के लिए मंत्र नींद कि गोली के अलावा कुछ नहीं है। मन्त्र तो मन को नियंत्रित करने का केन्द्रित करने का एक माध्यम है, आप मन्त्र पर सवार होकर अज्ञात से मिलन कि यात्रा कर सकते हैं। बस याद रहे मुख्य मार्ग पर पहुँचने के लिए पगडण्डी का , और आस पास बिखरे खजानो का मोह त्यागना होगा। मन्त्र शक्ति और मन्त्र से प्राप्ति भी एक पगडण्डी है इस मार्ग कि, उसपर कभी और बात करेंगे आज इतना ही........</span><br /><span style="font-size:100%;">प्रेम तत्सत </span><br /><br /><span style="font-size:100%;"></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-89424826886431803482011-01-04T05:53:00.000-08:002011-01-04T06:04:03.415-08:00अपनी बात- कुछ बिखरे मोती" मुख में दाबे पूँछ है अपनी, शिव को लिए लिपटाय<br /><span> गुरु कृपा से ऊपर जाके फिर शिव से मिल जाए"</span><br /><span></span><br /><span>" अज्ञात से मिलन की वो अनंत यात्रा गुरु रूपी नैय्या पर ही तय की जाती है।"</span><br /><span></span><br /><span>" हिमालय में कहीं भी शान्ति नहीं है, विश्व में कहीं भी कोलाहल नहीं है,</span><br /><span> सब दृष्टि का भ्रम है, गुरु पद नख निहारो दृष्टि मिलेगी"</span><br /><span></span><br /><span>" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है,</span><br /><span> राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः होता है, इसके लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं होती है। "</span><br /><span></span><br /><span>" वो अंतर में प्रकाश लेकर तब आता है, जब वहां कोई ना हो ना दीन, ना दुनिया और ना आप खुद "</span><br /><span></span><br /><span>" आप सारी दुनिया को जानने चले हैं, पर खुद से बिलकुल ही अनजान हैं, गुरु आपसे आपका परिचय करवा देता है, आप अपने हो जाते हैं "</span><br /><span></span><br /><span>प्रेम तत्सत</span><br /><span></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-73774992143925255152010-12-29T04:40:00.000-08:002011-01-03T02:31:15.254-08:00पंचम सूत्र- " ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास से प्राप्त आनंद सभी रत्नों के पाने से अधिक है"प्रिय मित्रो अघोर उपनिषद् का पंचम सूत्र, चतुर्थ सूत्र का ही दुसरा भाग है। पूज्य सरकार की जिस वाणी से यह सूत्र निकला है वो इस तरह है।<br /><br /><br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">" सुधर्मा सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप धन भी होता है, <span style="font-size:0;">सुषुप्ता-</span>धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, श्रद्धा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है। इन सभी तरह के धन के साथ अच्छा <span style="font-size:0;">धनवान,</span> ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास करता है.वह देव को खरीदता है। धन की क्रय शक्ति से संसार के सभी रत्नों के पाने का जो आनंद होता है, ब्रम्हचर्य के साथ एकांतवास की शक्ति से प्राप्त आनंद उससे कहीं अधिक होता है।"<br /><br /></span></strong>चतुर्थ सूत्र में पूज्य अघोरेश्वर ने हमें एकांतवास की प्रेरणा दी और आगे बढ़कर सरकार ने कहा की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास , ब्रह्मचर्य - संसार के सुन्दरतम, रहस्यात्मक और अर्थपूर्ण शब्दों में से एक है। हिन्दू धर्म ने जगत को एक अमूल्य उपहार दिया इस शब्द के रूप में। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत विराट है, परन्तु सदियों से चले आ रहे इस शब्द के साथ के साथ अनगिनत परिभाषाएं जुडती चली गयीं और आज ब्रह्मचर्य अपने क्षुद्रतम अर्थ को प्राप्त हो गया है। आज ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यौन संबंधो का निषेध, विपरीत लिंगी के प्रति अनासक्ति, अनासक्ति ही नहीं घृणा। <span style="font-size:100%;">यह अर्थ कदापि हिन्दू धर्म का नहीं हो सकता , यह अर्थ बुद्ध और महावीर के बाद प्रचलन में आया है। भारतवर्ष की साधुताई और आध्यात्म को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर एक अलग ही रूप दे दिया बौद्ध और जैन धर्म ने। मैं बुद्ध या महावीर के ब्रह्मचर्य की बुराई नहीं कर रहा, उनका ब्रह्मचर्य भी अपने अर्थो में सहीं था, परन्तु वो उनके लिए सही था जो उनके मार्ग पर चलना चाहते थे। गौतम बुद्ध और महावीर भारतवर्ष के आध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टि देने वाले लोग हैं, परन्तु उनकी छाया और प्रभाव में हिन्दू धर्म के बहुत से सिद्धांतो ने अपने रूप को बदल लिया।<br /><br />स्त्री जाती के प्रति अत्याचार और हेय दृष्टि का प्रतीक बना दिया ब्रह्मचर्य को। जिस देश के तंत्र विज्ञान ने स्त्री जाती को परमात्मा के रूप में इश्वर के रूप में स्वीकारा हो, उसी देश में स्त्री नरक का द्वार हो गयी, स्त्री की और देखना पाप हो गया, स्त्री को पशु कहा गया और ताडन के लायक कहा गया। महावीर ने कहा स्त्री मुक्त नहीं हो सकती, उसे मुक्त होने के लिए अगले जन्म में पुरुष के रूप में जन्म लेना होगा, बुद्ध ने शुरू में स्त्रियों को अपने संघ में जगह नहीं दी इसी भावना के कारण। जबकि ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था। आज तो स्तिथि यह है की वर्धमान महावीर जो विवाहित थे, उनके अनुयायी इस सच से इनकार करते हैं, जितना दूर कर सको स्त्री को उतना ही अच्छा। वाह रे तुम्हारा ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा। ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे। कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी, परन्तु आज की परिभाषा से चलेंगे तो विरोधाभास पर पहुंचेंगे, पर ब्रह्मचर्य की मूल भावना और अर्थ का अनुभव कर लेंगे, तो इस सत्य से आपका भी परिचय हो जाएगा।<br /><br />मेरे विचार में ब्रह्मचर्य शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो इस शब्द में ही छुपा हुआ है, ब्रह्मचर्य- अर्थात ब्रह्म की चर्या। ब्रह्म की चर्या को अपने भीतर उतार लेना, अपनी चर्या को ब्रह्म की चर्या की तरह बना लेना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म की तरह आचरण, व्यवहार और क्रिया कलाप ही ब्रह्मचर्य है। शब्द कल्पद्रुम भी ऐसा ही कुछ कहता है, " <strong><span style="color:#ff0000;">ब्रह्मणे वेदार्थंचर्यं आचार्नियम</span></strong>" </span><span style="font-size:100%;"><br />अर्थात ब्रह्म सा आचरण ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म अर्थात एक जहां दो की संभावना नहीं होती, सारा जगत ब्रह्म है, जब सब कुछ वही एक है, तो फिर किसके प्रति आसक्ति और आकर्षण। निर्विकार, निराकार, निर्विशेष में भेद की बात ही कहाँ , और जब भेद ही नहीं तो कौन स्त्री और कौन पुरुष। जहाँ जीव और ब्रह्म में भेद नहीं रह जाता, उस अभेद अवस्था का नाम ब्रह्मचर्य है। उपनिषदों ने कहा है,<strong><span style="color:#ff0000;"> " जगद्दृपद याप्ये तद्ब्रह्मैव प्रतिभासते , विद्या अविध्यादी भेद भावा अभावादी भेदतः "</span></strong> इस जगत के रूप में ब्रह्म ही दिखाई देता है, विद्या-अविद्या , भाव-अभाव आदि के भेद से जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह ब्रह्म ही है। इसी तरह ब्रह्मचारी का अर्थ होता है जो ब्रह्मचर्य का सेवन करे, <strong><span style="color:#ff0000;">" ब्रह्मणि वेदे चरती इती ब्रह्मचारी "</span></strong>। प्राचीन काल में कहा जाता था, जो वेदान्त और ब्रह्म चिंतन में लीन रहता है, वही ब्रह्मचारी है। प्राचीन काल में कहीं भी स्त्री संग का निषेध नहीं किया गया है। उपनिषदों में आया है, <strong><span style="color:#ff0000;">" कायेन वाचा मनसा स्त्रीणाम परिविवार्जनाम, ऋतो भार्याम तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते "</span></strong> अर्थात मन वाणी और शारीर से नारी प्रसंग का परित्याग तथा धर्म बुद्धि से ऋतू काल में ही स्त्री प्रसंग ब्रह्मचर्य है "। अगर आप गृहस्थ हैं तो रितुबद्ध होकर स्त्री संग करते हुए भी आप ब्रह्मचर्य को प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि इन अर्थो में तो ब्रह्मचर्य ग्रहस्थो को ही प्राप्त है। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य का कोई सम्बन्ध काम वासना अथवा शारीर के किसी भी स्थिति में नहीं था। बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।<br /><br />मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का दुसरा अर्थ आज के प्रचलित अर्थ के आस पास ही है, परन्तु मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य बाहर से आरोपित ना होकर अन्दर से प्रस्फूटित होता है। हठयोग प्रदीपिका कहती है <strong><span style="color:#ff0000;">" मरणं बिन्दुपाते , जीवनं बिंदु धारणं "</span></strong> अर्थात वीर्य का पतन मृत्यु है , और वीर्य को धारण करना जीवन है। मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का जो दुसरा अर्थ है, उसका सम्बन्ध वीर्य के रक्षण, पोषण, उत्थान एवं ऊर्ध्वगमन से है। यहाँ भी मैं स्त्री का कोई निषेध नहीं देख पाटा हूँ। यह मेरे निजी विचार और अनुभव की बात है। वीर्यपात प्राकृतिक हो या दें किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए। परन्तु यह संभव नहीं दीखता क्योंकि आज का ब्रह्मचर्य थोपा हुआ है, आरोपित है, लादा गया है, आज ब्रह्मचर्य दमन से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। दमित काम वासना से उपजा ब्रह्मचर्य पानी का बुलबुला है, यह वो सूखी घास है, जिसे एक चिंगारी मिली और यह जल उठेगा। दमित भावनाएं, संवेदनाएं, विकृति बनकर बाहर आती हैं.ब्रह्मचर्य अज्ञात के मार्ग पर सरल सहज स्वाभाविक रूप से आपके भीतर प्रगट होता है, उसके लिए प्रयास करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्मचर्य भी अज्ञात के मार्ग में प्राप्त होने वाला धन है, जो आपको स्वतः मिलेगा स्वतः घटेगा स्वतः भीतर से प्रस्फूटित होगा। ब्रह्मचर्य वीर्य को धारण करना है, वीर्य का रक्षण करना है, वीर्य को अधोगति के विपरीत ऊर्ध्वगति देना है, अब यह अकेले हो या स्त्री के संग हो कोई अंतर नहीं पड़ता है। अघोर संतो में यह कहावत प्रचलित है, </span><br /><span style="font-size:100%;"><strong><span style="color:#ff0000;">" भग बिच लिंग लिंग बिच पारा, जो राखे सो गुरु हमारा "</span></strong></span><br /><span style="font-size:100%;">अर्थात जो संभोगरत अवस्था में भी पारा(वीर्य) को राखे अर्थात धारण करे, उसे अधोगति अर्थात पतन की तरफ ना ले जाकर ऊर्ध्वगति की तरफ ले जाए याने उसे ऊपर चढ़ा दे , वही गुरु है, वही सच्चे अर्थो में ब्रह्मचारी है। यह तभी संभव होता है, जब क्रिया होती है परन्तु करता कर्म से सम्बंधित नहीं होता है। वो उस क्रिया में अनुपस्थित होता है। उपनिषदों में कहा गया है, <strong><span style="color:#ff0000;">" वासनामुदयो भोग्ये वैराग्यस्य </span></strong><span style="font-size:0;"><strong><span style="color:#ff0000;">तदावधिः"</span></strong> </span>जब भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित ना हो, जब भोग भी वासना रहित हो , तब वैराग्य की स्थिति जानना चाहिए"। ब्रह्मचर्य उस स्थिति का नाम है, जो देह में होते हुए भी विदेही हैं, जिसकी देहबुद्धी ऊपर उठकर आत्मबुद्धि में रूपांतरित हो गयी है, जो शारीर से ऊपर उठकर आत्मा में रमण करने लगा हो, वो ब्रह्मचारी है। वीर्य का रक्षण और ऊर्ध्वगमन ब्रह्मचर्य की प्रथम स्थिति है, परन्तु फिर कहता हूँ जबरदस्ती नहीं, स्वतः। वीर्य जब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नीचे की तरफ यात्रा करता है, तो वो अधोगति कहलाती है, और जब साधक की साधना के फलस्वरूप जब वीर्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर अधोगति नहीं ऊर्ध्वगति की तरफ यात्रा करता तब ब्रह्मचर्य घटता है। यह संभव है, बिलकुल उसी तरह जैसे पानी शुन्य तापमान से नीचे जाता है तो गुरुत्वाकर्षण का बल पाकर ठोस बर्फ बन जाता है, पर जब पानी गरम होता है और तापमान शुन्य से ऊपर उठता है तो भाप बनकर ऊपर की तरफ उठने लगता है, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। जिस तरह पानी की निचे की तरफ यात्रा उसे ठोस बनाती है , गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ले आती है और ऊपर की तरफ यात्रा उसे भाप बनाकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त करती है, उसी तरह वीर्य की अधोगति मनुष्य को माया के प्रभाव में ले आती है , मृत्यु की तरफ और वीर्य की ऊर्ध्वगति उसे माया के प्रभाव से मुक्त करके जीवन अर्थात परमात्मा की तरफ बढ़ा देती है।</span><br /><span style="font-size:100%;">तंत्र मार्ग के पथिक मेरी इस बात का समर्थन करेंगे, की कुण्डलिनी जब जागती है, तो वासना का तूफ़ान हिलोरे मारता है, कुण्डलिनी मूलतः काम ऊर्जा ही है, अगर उसे ऊपर उठने का मार्ग नहीं मिलता है, तो वो दुसरे रूप में अपनी शक्ति को प्रवाहित कर देती है, सम्भोग की चरम अवस्था करीब करीब समाधि की तरह ही होती है, यह वो क्षण है जब आप अपनी काम ऊर्जा को ऊपर की तरफ गति दे सकते हैं। सामान्यतः अधोगति के फलस्वरूप वीर्यपतन हो जाता है, और काम ऊर्जा शांत हो जाती है। कुण्डलिनी जब ऊपर के चक्रों की तरफ आगे बढती है, तो वापस निचे उतर आती है। वासनाओं के प्रभाव में कुण्डलिनी बार बार निचे उतर आती है, परन्तु अगर कुण्डलिनी एक बार आज्ञा चक्र में प्रवेश कर जाए तो फिर वो वहां स्थिर हो जाती है और अगर साधक शक्ति दे तो ऊपर की तरफ बढ़ जाती है। आज्ञा चक्र में प्रवेश करते ही काम वासना विलीन हो जाती है, साधक काम से ऊपर उठ जाता है। तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री। </span><span style="font-size:100%;"><br />जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है। आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है। बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है। यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है । वासना विदा हो जाती है आपके जीवन से, यहाँ से अधोगति की संभावना ख़त्म हो जाती है। यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है। </span><br /><span style="font-size:100%;">अघोरेश्वर कह रहे हैं, इसलिए, की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास सबसे मूल्यवान है। ब्रह्मचर्य को धारण करेंगे तो धीरे धीरे आप एकांत को प्राप्त करेंगे, और ऐसी अवस्था में वास करना स्थिर हो जाना एकांतवास है, जो की आपका सबसे मूल्यवान धन है। </span><br /><span style="font-size:100%;">प्रेम तत्सत<br /><br /></span><br /><br /><span style="font-size:0;"></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-69964433527444551542010-12-27T22:30:00.000-08:002010-12-28T06:44:36.636-08:00चतुर्थ सूत्र - " एकांतवास सबसे अमूल्य धन है" "पूज्य अघोरेश्वर भगवन रामजी को अघोर पथ के पथिक, भक्त , प्रेमी और शिष्य प्रेम से श्रद्धा से मालिक, <span style="font-size:+0;">सरकार </span>बाबा और सरकार कहते हैं। आज का सूत्र सरकार के श्री मुख से निकल कर परिग्रह के रोग से ग्रस्त समाज के लिए संजीवनी बन कर प्रगट हुआ था। मानव जाती के इतिहास को उठा कर देखे तो हमें ज्ञात होता है, <span style="font-size:+0;">कि </span>मनुष्य सदा से परिग्रह करता रहा है। परिग्रह अर्थात जमा करना, संग्रह करना, इकठ्ठा करना मनुष्य का मूलभूत स्वभाव है। मनुष्य अपने जन्म के साथ एक बंधन लेकर आता <span style="font-size:+0;">है,</span> इच्छा या लोभ जिसके वशीभूत वो पाने कि कामना करता <span style="font-size:+0;">है,</span> और यही कामना आगे परिग्रह का स्वरुप ले लेता है। परिग्रह सिर्फ धन का नहीं होता है, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा, कि किसी भी प्रकार का परिग्रह करके मनुष्य स्वयं को <span style="font-size:+0;">धनी </span>मान लेता है। हर व्यक्ति के लिए धन कि परिभाषा अलग होती है। एक व्यक्ति रुपया पैसा जमा करता है, एक व्यक्ति हीरे जवाहरात जमा करता है। किसी को किताबे जमा करने का शौक होता है, कुछ लोग तो डाक टिकिट, पुराने सिक्के, पुराने सामान, माचिस के खाली डिब्बे और जाने क्या क्या जमा कर लेते <span style="font-size:+0;">हैं। </span>प्राप्त प्राप्त आनंद सयाने लोग समझदार लोग विचारों का संग्रह कर लेते हैं, जिन्हें हम दार्शनिक कहते हैं। कुछ महात्मा होते हैं वो सिद्धियों का संग्रह कर लेते हैं, मान्त्रिक मंत्रो का संग्रह कर लेते हैं, गुरु शिष्यों का संग्रह कर लेते हैं, मठाधीश आश्रमों का संग्रह कर लेते हैं। अलग अलग लोगो को अलग अलग प्रकार कि चीज़े जमा करने का शौक होता है, इन सबके पीछे मूल रूप में परिग्रह कि भावना ही विद्यमान होती <span style="font-size:+0;">है। </span>जो जमा हो रहा है ,वो उस व्यक्ति कि पूँजी है, धन है।गुरु के लिए शिष्य धन हैं, धन्ना सेठों के लिए हीरे जवाहरात धन हैं, नेता के लिए समर्थक धन हैं, दार्शनिको के लिए विचार धन हैं, मांत्रिको के लिए मन्त्र धन हैं, तांत्रिक के लिए सिद्धियाँ धन हैं, डाक टिकट का संग्रहकर्ता डाक टिकट को अपनी पूँजी अपना धन मानता है। परिग्रह बहुत मूल्यवान शब्द है जिसका हमने बहुत स्थूल अर्थ लिया है, सिर्फ रुपया पैसा हीरे मोती जमीन जायजाद के संग्रह को परिग्रह कहा है <span style="font-size:+0;">हमने। </span>जिस तरह नशा कोई भी हो नशा होता होता है, चाहे शराब का ,चाहे चाय <span style="font-size:+0;">का,</span> चाहे सत्संग <span style="font-size:+0;">का,</span> चाहे भजन का । ठीक उसी तरह परिग्रह किसी भी वस्तु के संग्रह की कामना को कहा जाता है।<br /><br />मनुष्य के धनी होने कि कामना के मूल में परिग्रह विद्यमान है। क्या जमा कर रहे हैं, इसका सवाल नहीं है, रद्दी जमा करने वालो में जिसके पास ज्यादा रद्दी है वो ज्यादा धनी है। धन से मनुष्य का पीछा कभी नहीं <span style="font-size:+0;">छूटता। </span>क्योंकि जन्म से ही लोभ और कामना लेकर आये हैं हम। एक बहुत महान संत हुए हैं धनी धर्मदास, अब बताइये संत हैं जागृत पुरुष हैं, पर नाम के आगे धनी लगा है, पर बात सही है, हमारे पास बाहर का धन है उनके पास अन्दर का धन था। धर्मदास अपने अन्दर के खजाने को पा चुके थे , इसलिए धनी धर्मदास कहलाये। तुम धन के बिना मानते ही नहीं हो, सदियों से तुमको लालच देना पड़ता <span style="font-size:+0;">है, </span>अच्छे की तरफ प्रेरित करने के लिए भी, परमात्मा की तरफ प्रेरित करने के लिए भी। किसी ने कहा प्रभु का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है, कोई कहता है तुम्हारे भीतर अनंत शक्ति का वास है , कोई कहता <span style="font-size:+0;">है,</span> बाहरी धन को छोडो ,अन्दर के धन को पा लो। अजीब बात <span style="font-size:+0;">है,</span> पर है सच, तुम्हे लालच दिखाना पड़ता है, बाहरी नहीं तो भीतरी धन का लालच। क्या करे तुम वो गधे <span style="font-size:+0;">हो,</span> जिसके आगे अगर घास ना बाँधी जाए तो तुम एक कदम भी आगे ना बढ़ो। बिना स्वार्थ बिना लोभ के तुम कुछ करते ही नहीं, जहाँ स्वार्थ नहीं वहां का तुम पता भी रखना ज़रूरी नहीं समझते।इसलिए संतो ने बुद्धो ने यह तरकीब निकाली थी। उन्हें मालूम था तुम्हे सीधे अपरिग्रह में नहीं उतारा जा सकता है, तुम्हे एकदम से अपरिग्रह के लिए तैयार करना मुश्किल है, तो पहले तुम्हे भीतर के धन का लोभ दिया ताकि तुम बाहरी धन को भूल जाओ। संसार में महावीर ने सबसे ज्यादा अपरिग्रह पर जोर दिया, वैसे तो पंतांजलि ने भी अष्टांग योग के यम नियम प्रकरण में अपरिग्रह को स्थान दिया है, परन्तु महावीर ने इसे एक व्रत एक सूत्र एक साधना पद्धति एक तप के रूप में स्वीकार किया। पर विडम्बना है, की महावीर के अनुयायी ही सबसे ज्यादा परिग्रही बन के उभरे हैं, ना सिर्फ गृहस्थ बल्कि साधू भी जो खुद के पास कुछ भी नहीं रखते वो भी मंदिरों के नाम पर तीर्थो के नाम पर परिग्रह कर रहे हैं। क्या कर सकते हैं, संग्रह परिग्रह हमारे स्वभाव में हैं, मन रास्ते निकाल ही लेता है।बुद्ध पुरुषों को पता था अघोरेश्वर जानते <span style="font-size:+0;">थे, </span>तुम्हारा यह स्वभाव तो बदलने से रहा, इसकी तो बात ही करना बेकार है। धन की लालसा छोड़ नहीं सकते <span style="font-size:+0;">तुम। </span>तब बुद्धो <span style="font-size:+0;">ने,</span> सिद्धो <span style="font-size:+0;">ने,</span> अरिहंतो ने, अघोरेश्वर ने तुम्हे उस धन का पता दिया उस धन की खबर दी जो तुम्हारे भीतर है।<br /><br /><br /><br />पूज्य सरकार कहते हैं, " <span style="font-size:+0;">सुधर्मा, </span>सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता <span style="font-size:+0;">है। </span>वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप-धन भी होता है, <span style="font-size:+0;">सुषुप्ता-</span>धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, <span style="font-size:+0;">श्रद्धा-</span>धन भी होता है, शील-धन भी होता है।<br /><span></span><br /> सरकार ने धन संचय से मना नहीं किया, पर किस प्रकार का धन संचय करना और किस प्रकार से धन संचय करना है, यह भी बताया जिसके पीछे भावना संचय से मुक्ति की थी। सर्वोत्तम धन और सर्वोत्तम धनवान के बारे में भी समझा दिया। वो जानते थे, जैसे जैसे ज्यादा मूल्य की वस्तु तुम्हे मिलने लगेगी तुम कम मूल्य की वस्तु का त्याग कर दोगे। यही स्वभाव है तुम्हारा, जो मिला उसका मूल्य खो गया तुम्हारे लिए, ज्यादा मूल्यवान मिला तो कम मूल्यवान का त्याग कर दिया तुमने। इसलिए तुम्हे तुम्हारी भाषा में समझाना पड़ता है। सरकार ने कहा एकांतवास सबसे मूल्यवान धन है, सबसे मूल्यवान की खोज में जाओगे तो कम मूल्यवान के प्रति मोह त्यागना ही होगा। अपनी झोली खाली करनी पड़ेगी तुम्हे । एक व्यक्ति ने सुना था की दूर पहाडो में ताम्बे की खान है। वो निकला झोली उठाकर की थोडा इकठ्ठा करके ले आऊंगा। वो वहां पहुंचा और ताम्बे से झोली भर ली तभी एक दुसरा व्यक्ति वहां पहुंचा और बोला अरे भाई आगे और जाने पर चांदी की खान मिलेगी। उसने जो ताम्बा जमा किया था, वो झोली से निकाल कर फेंका क्योंकि थोडा बेवकूफ था, तुम्हारी तरह होता तो पहले चांदी की खान पे पहुँचता और जब निश्चित कर लेता की चांदी है, तब वो झोली खाली करके चांदी भर लेता। पर कम पढ़ा लिखा था , झोली खाली कर दी वहीँ, और याद रखना ऐसे ही कम पढ़े लिखे लोग ही कुछ पाते हैं जीवन में, आध्यात्म ममें उतरना है तो पहले खुद के कचरा ज्ञान को खाली करना पड़ेगा। खैर वो आगे बाधा तो चांदी की खान मिली , फिर वही किया फिर एक व्यक्ति मिला और बताया की आगे सोने की खान है, और इस तरह वो झोली खाली करता गया और भरता गया, जितना आगे जाता उतना मूल्यवान धन मिलते जाता। सार इतना ही है की झोली खाली करनी पड़ेगी हर बार, जो पाया उस से मुक्त होना पड़ेगा हर बार तब आगे की यात्रा हो सकेगी। सारे साधक स्वीकारते हैं की साधना मार्ग में तरह तरह के प्रलोभन हैं, कथाये कहती हैं, की जब कोई महान तपस्वी कड़ी तपस्या करता था तो इन्द्र का आसन डोलने लगता था, और इन्द्र अप्सराये भेजता था साधना भंग करने। आज भी यह होता है, कथा अर्थपूर्ण है, सच है पर सांकेतिक। इंद्र का अर्थ है इन्द्रियों सहित मन, और अप्सराओं का अर्थ है , विषय भोग का भ्रम। जब आप अपने भीतर प्रवेश करने लगते हैं, जब आप केंद्र की और यात्रा आरम्भ करते हैं, तो इन्द्रिया सिकुड़ने लगती हैं, सिमटने लगती हैं, तब मन की घबडाहट शुरू होती है, उसका आसन डोलने लगता है, की उसके सिपाही यह इन्द्रियाँ भी केंद्र की और सिमट रही हैं। तब मन विषयो का एक भ्रम जाल तैयार करता है, इन्द्रियों को वापस लाने और आप उस भ्रम का शिकार हो जाते हैं। मन आपके समक्ष एक झूठा दर्शन झूठा आत्म-साक्षात्कार भी प्रगट कर देता है,ताकि आप अपनी यात्रा रोक दे। मन विस्तार का प्रेमी है, मन चलायमान है, वो स्थिर होना जानता ही नहीं, उसे ठहराव पसंद नहीं, और तुम्हारा मूल स्वभाव है स्थिरता। यही इन्द्रियों सहित मन कहलाता है ,इंद्र, और मन द्वारा प्रक्षेपित विषय का भ्रम अप्सराएं है। साधना पथ में सिद्धिया भी हैं , पर अगर आप आत्म-साक्षात्कार की यात्रा पे हैं, तो सिद्धियों को भी छोड़ना होगा। तभी आगे की यात्रा संभव है, सिर्फ आपकी जरुरत है, इस मार्ग में और किसी दूसरी चीज़ की नहीं, खुद को खाली करते जाइए तभी आप इस मार्ग के अधिकारी होंगे। इसी तरह मनुष्य को उसके भीतर की यात्रा की और ले जाने के लिए उसे भीतर के धन की झलक दिखानी पड़ती है।<br /><br />पूज्य सरकार कहते हैं, " सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है" एकांतवास का प्रचलित अर्थ होता है, अकेले निवास करना, जहाँ दुसरा कोई ना हो। पर यह संभव ही नहीं, जहाँ चले जाओ खुद को कभी अकेला कभी नहीं कर सकते हो। एकांत का एक और अर्थ होता है, एक का अंत। एक बार की बात है, मैं अपने गुरुदेव के पास गया , वो अकेले बैठे थे तो मैंने सोचा उनके सानिध्य का लाभ ले लूँ। मैंने जाते ही कहा बाबा आप अकेले बैठे हैं, तो उन्होंने कहा' अभी तक तो अपने साथ था तुम्हारे आने से अब अकेला हो गया हूँ"। आज उस बात का अर्थ समझ में आता है, जब हम किसी और के साथ नहीं होते तब हम अपने साथ होते हैं, या परमात्मा के साथ होते हैं। आप कहीं भी चले जाइए परमात्मा सदा विद्यमान है वो घट घट में है, आपमें भी वही ज्योति विद्यमान होती है।तो जब भी आप अकेले होंगे तो दो हो जायेंगे, एक मैं और एक वो, अगर मैं को पाना है , तो वो का अंत आवश्यक है, और अगर वो को पाना है तो मैं का अंत करना पड़ेगा । दोनों में से किसी एक का अंत आवश्यक है, तभी एकांत घटेगा और इस अवस्था में स्थिर हो जाना ही एकांतवास है। इसे थोडा ठीक से समझे, ध्यान के मार्ग पे चलना है, ज्ञान के मार्ग पे चलना है, तो "मैं" को जीना होगा, इस मार्ग में "वो" याने परमात्मा का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। अगर भक्ति के मार्ग पे चलना है, अगर प्रेम के मार्ग पे चलना है, तो फिर "मैं" को भूलना होगा मैं का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। भक्ति में वो ही वो होता है और ज्ञान में मैं ही मैं होता है। ध्यान में मैं ही मैं और प्रेम में वो ही वो। पर एक गज़ब बात है एक से चलोगे तो दुसरे तक पहुँच जाओगे, ज्ञान से चलोगे तो भक्ति में उतर जाओगे और भक्ति से चलोगे तो ज्ञान प्रगट हो जाएगा।दुसरे शब्दों में कहें तो ध्यान से चलोगे तो प्रेम में उतर जाओगे और प्रेम से चलोगे तो ध्यान में प्रवेश कर जाओगे। यह अजब गोरखधंधा है, अलग अलग मार्ग हैं पर आकर एक दुसरे से मिल जाते हैं। और मिले भी क्यों नहीं जब मंजिल एक होती है तो रास्ते अक्सर टकरा जाते हैं। मंजिल पार पहुँच कर कौन रास्तो की खबर रखता कौन मील के पत्थरो का हिसाब रखता है। इस एकांतवास के लिए किसी एक का अंत तो करना ही पड़ेगा , पर इस दो तक पहुँचने के लिए स्थूल एकांतवास में जाना होगा, आशय यह है की, सबको भूला कर खुद के साथ रहना होगा। आपको कहीं जंगल जाने की जरूरत नहीं है, सरकार तुम्हे घर से भागने भी नहीं कह रहे हैं, तुम्हे पलायन करके हिमालय जाने भी नहीं कहते, वो तो बस कहते हैं की इस दुनिया में रहते हुए बस ज़रा सा भीतर सरक जाओ अपने। आँखें बंद करो बाहरी तमाशा ख़त्म, कान बंद तो बाहरी बातें ख़त्म, जहाँ हो वहीँ एकांतवास घट सकता है।बस अपने भीतर सरक जाओ , पूरी दुनिया को भूल कर अपने साथ हो जाओ, खुद की सुनो खुद से बोलो, खुल ही बांधो खुद ही खोलो । जहाँ हो बस वहीँ पर ठहर जाओ, जब अपने साथ रहना शुरू कर दोगे, तब एक नए तमाशे एक नयी दुनिया से साक्षात्कार होगाअभी तक तो दुनिया की भीड़ थी , दुनिया का शोर था, दुनिया के विषय थे, भीतर उतारोगे तो उस से ज्यादा शोर सुनाई देगा, उस से ज्यादा भीड़ दिखाई देगी, विषय भोग तैयार मिलेंगे। भीतर के दरवाजे पर बैठा मन रुपी इंद्र प्रवेश करने नहीं देगा। विचारों की भीड़ तुम्हारा स्वागत करेगी, अतीत की आवाज़े गीत बनकर अभिनन्दन करेंगी, मन विषय भोग का प्रक्षेपण करेगा, अप्सराएं सिद्धियाँ, भविष्य के संकेत जाने क्या क्या नज़र आएगा। भीतर जाकर भी जूझना होगा एकांत को पाने के लिए.तुम्हारे यह गेरुए वस्त्र धारी तथाकथित हिमालय के योगी यह दिगंबर साधू आँखे बंद करके मन के प्रक्षेपण को ही सबकुछ मानकर जी रहे होते हैं। हमें सिर्फ दीखता है की वो जंगल में हिमालय में पहाडो में अकेले जी रहे हैं। अरे मेरे भाई जिसे अकेले जीना आ गया , जिसने एकांत का रहस्य समझ लिया वो भीड़ में भी अकेलेपन को जीना जानता है। क्या हिमालय क्या दुनिया सब एक हैं, ज़रा सा भीतर सरकने की ही तो देर हैं। जिसने यह सरकने की कला जान ली है, उसे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। एकांतवास सबसे मूल्यवान है, जब सबकुछ भूल कर अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे परिवर्तन आरम्भ होगा। जब अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे शनैः शनैः पहले बाहर का शोर तुम्हे प्रभावित करना बंद कर देगा, फिर धीरे धीरे भीतर का शोर भी बंद हो जाएगा, तब विचार शुन्यता की स्थिति पर पहुंचोगे और प्रवेश कर जाओगे वास्तविक एकांत में और बस वहीँ स्थिर हो जाना , उस अवस्था में ठहर जाना उस पल के साथ रहना ही एकांतवास है।<br />अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो : परम<br />प्रेम तत्सत<br /><br /><span><span> </span> </span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-12948353098898185912010-12-24T05:28:00.000-08:002010-12-24T05:37:44.202-08:00अपनी बात : मौन में वार्तालापआँखें बंद हो गई हमारी<br />तम में चमकी छवि तुम्हारी<br /><span>कान बंद थे ह्रदय मौन था </span><br /><span>करता अंतर में कोलाहल</span><br /><span>नाद रूप में जाने कौन था।</span><br /><span>छु कर देखो प्राण भ्रमण को</span><br /><span>जी कर देखो उस स्पंदन को</span><br /><span>अनहद बाजा सुनते जाओ</span><br /><span>भूल जाओ जग के क्रंदन को।</span><br /><span>प्रेम तत्सत</span><br /><span></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-83688180490760459942010-12-22T01:54:00.000-08:002010-12-22T02:13:07.352-08:00अपनी बात : गुरु कृपा केवलमविष की बूटी जो पीते हैं, वो पाते अमृत खान हैं<br />गुरु पे जीते गुरु पे मरते, वो पाते<span class=""> भगवान् हैं। </span><br />ऊपर वाला कुछ नहीं होता, निचे का कर ध्यान रे<br />अपने अंतरतम में खोजो , मिल जाए भगवान् रे।<br />गुरु आदि गुरु मध्य है, गुरु को ही अंत जान रे<br />गुरु के अंतर गुरु के मंदिर, मिल जाएगा ज्ञान रे।<br />गुरु शक्ति गुरु ब्रम्ह है, गुरु ही शक्तिमान है<br />गुरु ही रचता खेला सारा, गुरु का ही ये विधान है।<br />गुरु नहीं होता हाड़ चाम का, बात पते की जान रे<br />तेरे अन्दर ही रहता है, कहलाता है प्राण रे।<br />तू उसका है वो तेरा है, तू उसकी संतान है<br />तुझको तेरी निज सत्ता का, करवाता वो ज्ञान है।<br />गुरु से निकला गुरु से उपजा, फिर गुरु में मिल जाना है<br />जिसने भी इश्वर को जाना, गुरु रूप में ही जाना है।<br /><span class="">वो प्रगट ब्रम्ह कहलाता है, वो दबे पाँव से आता है</span><br /><span class="">तेरे अंतर तम में वो, विश्वास की जोत जलाता है।</span><br /><span class="">तुझको तुझसे मिलवाता है, तेरा दर्शन करवाता है</span><br /><span class="">कहते हैं सब लोग इसलिए, वो तेरा बाप कहलाता है।</span><br /><span class="">प्रेम तत्सत </span><br /><span class=""></span>कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com5tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-62031016435100841892010-12-22T01:33:00.000-08:002010-12-27T22:30:23.176-08:00तृतीय सूत्र - " गुरु गुरु बनाता है, चेला नहीं "तृतीय सूत्र<br />पूज्य अघोरेश्वर महाप्रभु के इस सूत्र पर बात करने हेतु , आज बुद्ध के जीवन की कथा से आरम्भ करता हूँ। बुद्ध अर्थात सिद्धार्थ आचार्य आलार कालाम से आरंभिक ध्यान - साधना की दीक्षा प्राप्त करने के बाद अपनी यात्रा में आगे बढे। आचार्य आलार कलाम ने उन्हें तीन बातें कही, पहली बात " असीम आकाश और असीम चेतना " में प्रवेश करो। " न भाव बोध ना भाव बोध्हीनता " " अपदार्थ्ता की अवस्था प्राप्त करो" इसके पूर्व आचार्य उद्रक रामपुतत ने भी उन्हें अकिंचन पायतन नाम की अरूप समाधी के लिए कहा था, जो निर्विचार अवस्था है। परन्तु सिद्धार्थ गौतम को यह महसूस हो गया था, की यह भी अंत नहीं है, बार बार झलक दिखती है। बुद्धत्व क़ि प्राप्ति क़ि पूर्वसंध्या में सिद्धार्थ बहुत कमज़ोर हो चुके थे, कपडे तार तार थे, उन्होंने शमशान में एक स्त्री के शव पर रखे कपडे को धारण किया, और पेड़ के निचे बैठ गए, बस अब कुछ नहीं करना, कुछ , कोई इच्छा नहीं, सुजाता ने खीर दी जो उनका रात्रि भोजन हुआ, और गौतम सो गए। जब प्रातः वो जागे तो भोर का तारा दिख रहा था, और उसे देखते देखते गौतम बुद्धत्व को प्राप्त हो गए। एक असीम आनंद से गौतम भर गए। कथा कहती है, क़ि सुजाता ने जब उन्हें देखा तो कहा , क़ि सन्यासी आज तुम्हारे चेहरे पर ज्ञान का अपूर्व तेज दिख रहा है। उसने कहा क़ि मागधी बोली में ज्ञान को बुध कहते है, तो ग्यानी को बुद्ध कहना चाहिए, गौतम ने यह संबोधन स्वीकार कर लिया। अब अपनी बात पर लौटूं , गौतम बुद्ध के भीतर जब बुद्धत्व प्रकट हुआ, तो वो एक बात से बड़े विस्मित हुए अचंभित हुए । उन्होंने कहा " समस्त जड़ चेतन पशु प्राणियों के अंतर में बुद्धत्व के बीज पड़े हुए है, फिर भी हजारो जन्मो से यह चक्र समाप्त नहीं हुआ"। गौतम ने देखा, उनके उनके भीतर ही नहीं बल्कि सृष्टि के कण कण में सभी जड़ चेतन पशु पक्षी पेड़ मनुष्य सभी में बुद्धत्व प्रकट हो गया है। सात दिनों तक मौन रहकर बुद्ध यह अनुभव करते आनंद क़ि अवस्था में रहे। उससे भी बड़ा अचम्भा तब हुआ, जब देवताओं ने अर्थात उच्च चेतनाओं ने उन्हें कहा "मौन कब तक रहेंगे, कुछ बोलिए संसार का मार्गदर्शन करिए" बुद्ध बड़े अचंभित हुए, किसे मार्गदर्शन देना है, किसे ज्ञान देना है, यहाँ तो सभी बुध्हत्व को उपलब्ध है। जो में हूँ, वही सब है, और जो सब है, वही मैं हूँ।, पर देवताओं के बार बार निवेदन करने पर बुद्ध ने अपने भीतर करूणा को प्रकट होते देखा। इस करूणा के वशीभूत बुद्ध ने देखा तो पाया, क़ि जो मैं कह रहा हूँ, वो तो सत्य है, मैं जानता हूँ, क़ि सब बुद्ध है, पर वो मूर्च्छा में पड़े है, वो नहीं जानते वो बुद्ध है, उनके भीतर भी बुद्धत्व के बीज है.उनके अन्दर बीज है , याने वृक्ष हो जाने क़ि सम्भावना विद्यमान हैं। अड़चन की बात, बस खबर देनी है उन लोगो को उनके बुद्धत्व की, पर लोग अपने बुद्धत्व की खबर का मखौल उड़ायेंगे, मसखरी समझेंगे, तो बुद्ध ने अपने बुद्धत्व क़ि खबर दी, स्वीकार किया लोगो ने। बुद्ध क़ि यात्रा आरम्भ हो गयी। अपने प्रथम सम्भोधन में बुद्ध ने एक चरवाहे , सुजाता और कुछ बच्चो को ज्ञान दिया। तत्पश्चात वो ढूँढने निकले उन पांच शिष्यों को जो उनकी विकट साधना और उसके बाद सुजाता द्वारा भोजन लेने पर, उन्हें छोड़कर चले गए थे। उन्हें लगा था की गौतम पथभ्रष्ट हो गए हैं। बुद्ध के लिए शिष्य बनाने का कोई प्रश्न ही नहीं था, क्योंकि किसे सिखायेंगे, पर उन्होंने जो पाया उसे बांटने के लिए और जिन्हें ज्ञान पाना है , उन लोगो को सीखने की दृष्टि से स्वयं को शिष्य कहना उचित है,। बुद्ध के लिए मुश्किल की बात है, क्या कहना और किसे कहना क्योंकि जिन्हें कहना है उनके भीतर भी बुद्धत्व ही देखा था गौतम ने, परमात्मा का दर्शन किया था। वो उनके भीतर भी उसी परम ज्योति का दर्शन कर पा रहे थे जिसका उन लोगो को भान नहीं था.कबीर ने भी इस बात को अपने तरीके से कहा और इस बात की पुष्टि की। " ज्यों तिल माहि तेल है, ज्यों चकमक में आग, तेरा साईं तुझमे है, जाग सके तो जाग " इसलिए जब पूज्य अघोरेश्वर कहते हैं , गुरु बनाता है चेला नहीं " तो लोग आश्चर्य से भर जाते हैं। बहुत हिमात भरा सूत्र है, क्योंकि सदियों से परंपरा रही है गुरु-शिष्य की और यह सूत्र विपरीत है उस परंपरा के। सत्य हमेशा से रूढ़ियों और परम्पराओं पे चोट करता रहा है। भारतवर्ष में सैकड़ों पंथ है, हज़ारों सतगुरु ,गुरु, सिद्ध गुरु जाने क्या क्या हैं, उनके लाखों शिष्य हैं। ऐसे में अघोरेश्वर का यह कहना की मैं गुरु बनाता हूँ चेला नहीं, और साथ ही सावधान कर रहे की गुरु गुरु ही बनाएगा, यहाँ सोना बनाने का सवाल नहीं यहाँ तो पारस बनता है जो अपने करीब आने वाले लोहे को परिवर्तित कर दे। रूपांतरण की शक्ति जब तक पैदा ना हो तो किस बात का बुद्धत्व , यह सूत्र उन सारे तथाकथित गुरुओ के विरोध में था जो पाप-पुण्य स्वर्ग-नरक के जाल में लोगो को उलझा कर अपना उल्लू सीधा कर रहे थे। बुद्ध ने कहा किसे ज्ञान दूँ , किसे सिखाऊं यहाँ तो सब बुद्ध हैं। अघोरेश्वर भी यही कह रहे हैं, बुद्ध्पुरुष बुद्ध्पुरुष का ही निर्माण करेंगे, शेर से शेर ही जन्म लेगा वहां मेमने की कल्पना मत करिए। गुरु शिष्य नहीं बनाता, वो उस आवरण को उतार फेंकता है, जो तुम्हारी गुरुता को तुम्हारे स्वरुप को तुम्हारे बुद्धत्व को ढांके हुए है। अघोरेश्वर जैसे बुद्ध पुरुष ही यह कह सकते हैं, की तुम मुझसे भिन्न नहीं हो। एक छोटी सी कथा से समझाने का प्रयास करता हूँ, दो मित्र रात्री में सोने जाते हैं, सुबह जल्दी उठकर उन्हें भोर के सूर्य का दर्शन करना है। वो दोनों महा आलसी थे, उनमे से किसी एक ने सुन रखा था की सुबह का सूर्य बड़ा सुन्दर दीखता है और उसको देखा जा सकता है , अगर सुबह जल्दी जाग जाए तो। दोनों मित्रो में तय होता है की जो पहले जागेगा वो दुसरे को जगा देगा। एक मित्र उठता है और सूर्य को देखता है और दुसरे के पास आता है, उसको सोता देखकर वो हंसने लगता है। बस ऐसा ही कुछ होता है अज्ञात की राह में, जो देख लेता है वो लौट कर आता है और संसार को देख कर हंसने लगता है, की मैं अब तक यहाँ था। क्या कहेंगे इसे, एक जाग गया और देख लिया, अब जो जागा हुआ है वो सोये हुए को जगायेगा, पर इसके लिए भी जागने की इच्छा तो हो, कुछ तो सोये हैं उन्हें जगा लेंगे पर कुछ जो सोने का नाटक कर रहे हैं उनको जगाना मुश्किल है, जागने के लिए नींद में होना जरुरी है, नींद का अभिनय करने वालो के नसीब में जागना कहाँ, और कुछ तो दो कदम आगे हैं, वो सोने का नहीं जागने का अभिनय करते हैं और इतना सटीक अभिनय के आप विस्मित हो जायेंगे तो बात सिर्फ इतनी है की एक सोया हुआ है एक जागा हुआ है, सोये हुए में संभावना है जागने की, वो भी जागेगा जब उसे कोई बतायेगा की मैंने देखा है तुम भी देख सकते अघोरेश्वर। अघोरेश्वर कह रहे हैं, तुम मुझसे भिन्न नहीं हो, सतगुरु वही है जो शिष्य को अपना ही अंग समझता है, अपना ही रत्न समझता है। अघोरेश्वर कहते हैं, मैं परमात्मा हूँ, तो तुम भी परमात्मा हो। फर्क इतना है की मैं जाग गया, जान गया, अपने बुद्धत्व को अपने स्वरुप को, और तुम अभी जागे नहीं हो नींद में हो। जागने के बाद बुद्धत्व रुपी सूर्य को देखने के बाद बुद्ध पुरुष भी वैसे ही हँसते हैं जैसे वो जागा हुआ मित्र अपने सोये हुए मित्र को देख कर हंसता है। अघोरेश्वर कह रहे हैं, मैं जाग गया तो जान गया, तुम अभी सो रहे हो, तुम जब जागोगे तो तुम भी जान जाओगे। नींद में होने से कोई पात्रता में कमी नहीं आ गयी बल्कि नींद में होना तो संभावना है जागने की। फर्क सिर्फ इतना है,की एक जागा हुआ बुद्ध है और एक सोया हुआ बुद्ध है। दोनों की भगवत्ता में सिर्फ इतना ही अंतर है। एक पुरानी कथा है, बड़ी ही अर्थपूर्ण है, एक शेर का बच्चा अपने झुण्ड से बिछड़ कर हिरनों के झुण्ड से जा मिला। हिरनों ने ही उसका लालन पोषण किया, उनके साथ ही रहकर वो जवान हुआ, उसके हाव भाव, रहन सहन, खान पान यहाँ तक की उसका वयवहार भी उनके जैसा हो गया, उस शेर का आचरण भी हिरनों की तरह हो गया था। एक दिन हिरनों के झुण्ड का सामना शेरो के एक झुण्ड से हो गया, सारे हिरन भय के मारे भाग गए , युवा शेर जो था वो एक कोने में दुबक गया, वो मारे भय के काप रहा था, अब शेरो को बड़ा अजीब लगा की यह हमें देख कर डर रहा है, उसको समझाने का बहुत प्रयास हुआ पर वो माने ही नहीं, आखिर झुण्ड के एक बूढ़े शेर ने उसे बुलाकर पानी में उसका प्रतिबिम्ब दिखाया, तब उस युवा शेर को अपने निज स्वरुप का एहसास हुआ। हमारी हालत भी कुछ ऐसी ही है। अघोरेश्वर कह रहे हैं, गुरु गुरु बनाता है, जो जागा हुआ है वही तुम्हे जगायेगा, जो सोया पड़ा है अगर वो तुम्हे आश्वासन भी दे तो व्यर्थ है। अघोरेश्वर महाप्रभु जैसे बुद्ध्पुरुष ही यह घोषणा कर सकते हैं,की " मैं ही परमात्मा हूँ" बिना संकोच कह देते हैं, पर दुसरे ही क्षण दूसरी घोषणा करते हैं, " तुम सब परमात्मा हो " अहंकार रहित चित्त से ही ऐसी घोषणा संभव होती है। निजता या प्रभुता दो ही चीज़े हैं आध्यात्म में, निजता ध्यान का ध्येय है और प्रभुता भक्ति का, और दोनों ही चीज़े अहंकार रहित चित्त से अनुभव में आती है। अहंकार रहित चित्त ही ध्यान का ध्येय है। जागे हुए लोगो को सिर्फ एक ही चीज़ दिखती है, या तो वो या तो मैं, कहीं दो नहीं कभी दो नहीं, जब दिखेगा एक ही दिखेगा। अहंकार को जीने के लिए स्वयं के अतिरिक्त एक और सत्ता की आवश्यकता होती है, जिसके समक्ष बोला जा सके जिसे दिखाया जा सके, अपनी प्रभुता। पर यहाँ तो सब प्रभु हैं, फिर कैसी प्रभुता किसकी प्रभुता किसपे प्रभुता। बहुत हिम्मत चाहिए, इस संसार में ऐसा कहने के लिए, सत्य को संसार पचा नहीं सकता। अघोरेश्वर सहजता से कह देते हैं, हम शिष्य नहीं बनाते हम तो गुरु बनाते हैं, हम वो पारस नहीं जो लोहे को सोना कर दें, हम तो वो हैं जो लोहे को पारस कर दे। अघोरेश्वर ही कह सकते हैं ऐसा, निरहंकारी और करूणा सहित वाक्य। जागा हुआ बुद्ध सोये हुए बुद्ध को जगा रहा है। सिर्फ इतना ही उपक्रम करना होता है। पर यहाँ तो सोये हुए लोग, बल्कि मूर्छित लोग बड़े बड़े मंचो से आपको जगाने का काम कर रहे हैं। जो खुद सोये हैं वो ही अहंकार से भरे हुए हैं, इन्ही अहंकारी लोगो ने भगवान् का जाल खड़ा किया है, आस्तिक अहंकार से भरा होता है, धार्मिक निरहंकारी होता है। नास्तिक में भी अहंकार नहीं होता, बेचारा किसका नाम लेकर अहंकार करे आप और तथाकथित संत भगवान् की आड़ में अपने अहंकार को पुष्ट कर रहे हैं। निरहंकारी चित्त ही भगवत्ता और भगवान् का स्वाद ले सकता है। आज बस इतना ही फिर कभी। प्रेम तत्सतकमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-54812277358229933102010-12-17T03:39:00.000-08:002010-12-17T04:23:54.252-08:00मेरी बात ध्यान के आलोक में.प्रिय मित्रों ,<br />क्षमाप्रार्थी हूँ ,कि इतने दिनों तक अनुपस्थित रहा। एक पारिवारिक कार्यक्रम में व्यस्त होने कि वजह से कुछ लिख नहीं पा रहा था। अब पुनः आरम्भ कर रहा हूँ । कुछ मित्रों ने ध्यान के विषय में जानने की अभीप्सा प्रगत की है। ध्यान के विषय में कुछ कहा जाना बहुत मुश्किल बात है, हाँ ध्यान में ले जाया जा सकता है। आपको प्रवेश दिलाया जा सकता है, आपको ध्यान में उतारा जा सकता है। ध्यान आज तक एक कृत्य की तरह आप सबके सामने लाया जाता रहा है। वस्तुतः ध्यान कृत्य है ही नहीं। ध्यान करने की चीज़ नहीं है, ध्यान कोई क्रिया नहीं है। ध्यान अक्रिया का दुसरा नाम है, कुछ करना सिखाया जा सकता है, पर कुछ ना करना सिखाना बहुत मुश्किल बात है, और ध्यान कुछ ना करने की यात्रा<span class=""> । ध्यान एक अवस्था है, एक स्थिति है, एक पड़ाव है। ध्यान के नाम पर जो कुछ कूड़ा करकट आज उपलब्ध है वो आपको भरमाने के साधन हैं। ध्यान की तैयारी की जा सकती है , पर वो सब ध्यान नहीं है। ध्यान मानो एक पाहुना है जिसके स्वागत के लिए आप कुछ मूलभूत तैयारी करते हैं। ध्यान बिलकुल एक खेती है जैसे एक किसान धरती को हल चलाकर साफ़ करता है, बीज डालकर इंतज़ार करता है फसल होने का, बिलकुल ऐसा ही है ध्यान। आपको वैसा वातावरण देना होता है और एक दिन ध्यान आपमें उतर जाता है। आप ध्यान को उपलब्ध कर लेते हैं। ध्यान करने की चीज़ नहीं है, ध्यान स्वतः होगा बस आप एकाग्र निर्विचार होने का प्रयास करते जाइए बस। निर्विचार शुन्य अवस्था का नाम ध्यान है। जब सारे विचार विलीन हो जाएँ , सारा आवागमन बंद हो जाए , तब ध्यान की यात्रा आरम्भ होती है। बचपन से हमें सिखाया जाता है ध्यान दो , मतलब किसी भी चीज़ के प्रति सजग हो जाओ, सजगता ध्यान की पहली सीढ़ी है। सजगता जब साक्षी भाव सहित होने लगेगी तो ध्यान की तरफ आपका दुसरा कदम बढेगा। साक्षी भाव का उदय तब होगा जब विचार विलीन होने लगेंगे। इसके लिए कोई विशेष प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती है, जब विचारों पे आप ध्यान देना बंद कर देंगे, उनके प्रति उदासीन होने लगेंगे तो धीरे धीरे साक्षी भाव का उदय होगा और आप धीरे से ध्यान में प्रवेश कर लेंगे। सिर्फ थोडा सा भीतर सरक जाना है आपको, आपकी सजगता किसी भी वस्तु , व्यक्ति,शब्द अथवा प्रतीक के प्रति हो सकती है। एकाग्रता से आपके विचार केन्द्रित होने लगते हैं , प्राण शक्ति केन्द्रित होने लगती है, और आप निर्विचार अवस्था की और बढ़ने लगते हैं। आपको ना अपने मन से लड़ना है ना अपने विचार प्रक्रिया से द्वन्द करना है, आपको सिर्फ इन्हें देखना है, सजगता सहित अर्थात जागते हुए, हम ज्यादातर काम बेहोशी में करते हैं, बुद्ध कहते हैं की कोई भी काम करो तो होशपूर्वक करो, जागते हुए करो, कोई भी स्वांस कोई भी क्रिया कोई भी विचार आपसे बिना मिले ना घट जाए, आप जो काम करे उसे पूरा का पूरा करे अर्थात जागते हुए करे। ध्यान जब उतरेगा तो नींद भी जागते हुए होगी अर्थात नींद में भी आपकी सजगता उपस्थित रहेगी। इसके लिए छोटे छोटे कदम उठाने होंगे, अपने दैनिक कार्यो के प्रति सजगता से आरम्भ करिए। राजयोग इस सजगता की पद्धति को प्रत्याहार कहता है, अंतर मौन जो राजयोग की पांचवी अवस्था है, इसी प्रक्रिया को साक्षी भाव भी कहा गया है, हमे कुछ नहीं करना है बस बैठ कर सजग होकर जो हो रहा है उसको देखना है। अगर आप साक्षी भाव से अपनी स्वांस के आवागमन को देखते हैं तो यह बुद्ध की आनापान सती योग पद्धति बन जाता है, जो विपश्यना के नाम से विख्यात है। ध्यान के विषय में और भी बातें आपसे होती रहेंगी। पर आज बस इतना ही. </span><br />प्रेम तत्सतकमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-11351148351473325962010-11-13T03:15:00.000-08:002010-11-13T04:32:08.890-08:00अघोर मेरी दृष्टि में.अघोर एक अनूठा अद्वितीय शब्द है, इसके जोड़ का शब्द खोजना मुश्किल है। ऐसे प्रीतिकर शब्द का अर्थ शास्त्रों में उपलब्ध नहीं है , गहन आश्चर्य का विषय है।अघोर को परिभाषित करने के बहुतेरे प्रयास हुए हैं पर अर्थ देने का प्रयास नहीं हुआ। एक भी स्वतंत्र अर्थ या परिभाषा देखने को नहीं मिलती है। अघोर का या तो तुलनात्मक अर्थ मिलता है , " जो घोर ना हो " अघोर शब्द को घोर का नकार माना गया है, विडम्बना है जबकि होना बिलकुल उलट चाहिए था, अघोर का नकार, अघोर का अभाव घोर है, ना की घोर की अनुपस्तिथि अघोर। यह कहना कितना हास्यास्पद होगा की अँधेरे का अभाव प्रकाश है। सूर्य की अनुपस्तिथि को, सूर्य के अभाव को हम रात्री कहते हैं, सूर्य का प्रकाश विलीन होता है, तब अँधेरा उत्पन्न होता है, प्रकाश का नकार अँधेरा है, प्रकाश का अभाव अँधेरा है, प्रकाश के जाने पे जो शुन्य उत्पन्न हुआ वो अँधेरा है। हम कभी यह नहीं कहते की अँधेरा आने को आने को है, अब सूर्य को जाना होगा, हमने कभी नहीं कहा की अँधेरे के आने से सूर्य अस्त होता है। सूर्य के आने से अँधेरा भाग जाता है या सूर्य के जाने से अँधेरा आ जाता है यह सच है, यही सच है। फिर कैसे अघोर कब घोरता या भयानकता का अभाव कहा गया कम से कम मेरी समझ में तो नहीं आता।<br /> अघोर को किन्ही शास्त्रों में पर्यायवाची की तरह प्रयुक्त किया गया है, अघोर को शिव का पर्याय माना गया है, कुछ जगह विशेष गुणों के समूह को अघोर कहा गया है, वेदों ने भी अघोर को घोर में ही अर्थ दिया है, क्योंकि शास्त्रों की यात्रा सदा अँधेरे से उजाले की और रही है, समझ से परे है यह बात। सही अर्थो में अघोर शब्द को उसकी पूर्ण गरिमा प्रदान करने का प्रयास ही नहीं किया गया,ऐसा प्रतीत होता है।<br /> अघोर शब्द अपने वास्तविक अर्थ को संभवतः पूज्य अघोरेश्वर भगवान् राम की वाणियो से उपलब्ध हुआ, उनकी दृष्टि में अघोर एक स्थिति है, एक पद है, जहाँ पहुँचने पर व्यक्ति में कुछ विशेष गुण प्रगट होने लगते है, जैसे समदर्शिता, संवर्तिता, सौम्यता, कल्याण भाव, करूणा एवं मैत्री। यह अर्थ बहुत हद तक अघोर को वो गरिमा प्रदान कर गया जो सदियों से उसे प्राप्त नहीं था। एक बुद्ध पुरुष से ही ऐसे गरिमापूर्ण अर्थ की अपेक्षा की जा सकती है। यह अनुभव की खदान से निकला वो हीरा है जिसपर विचार करने से आप भी उस और बढ़ सकते हैं।<br /> पूज्य गुरुदेव बाबा समूह रत्न रामजी ने कहा की अघोर आध्यात्म का सर्वोच्च शिखर है, सर्वोच्च अवस्था है, अघोर पथ के पथिको के लिए ,साधको के लिए, इतना अर्थपूर्ण वाक्य और हो नहीं सकता। यह सिर्फ अर्थ ही नहीं अपितु अघोर पथ की साधना का सूक्ष्म विश्लेषण है। इस एक सूत्र पे पूरा शास्त्र लिखा जा सकता है। यह सूत्र अघोर आगम बन सकता है अगर आप इसपर विचार करने का प्रयास करे तो, साधना के जिस गिरनार की हम सिर्फ कल्पना ही कर सकते हैं, जिसपे विचार करते है, उस तरफ कितना महीन इशारा है यह सूत्र।<br /><span class=""> बाबा कीनाराम स्थल के पीठाधीश्वर पूज्य बाबा सिद्धार्थ गौतम रामजी कहते हैं की " अघोर गंगा का पर्यायवाची है " । एक कदम और आगे की बात अब अघोर पथ के साधक के अन्दर प्रगट होने वाले गुणों का पता दे रहे हैं बाबा हमें, अघोर का अर्थ हुआ की जो स्वयं पवित्रता को उपलब्ध हुआ और साथ ही जिसमे औरो को पवित्र करने की क्षमता विद्यमान हो। इस कोटि का एक शब्द जैन आगमो में आया है "अरिहंत" और बौद्ध धर्म में शब्द आया "बुद्ध'। अरिहंत का अर्थ है, जो निर्वाण को उपलब्ध हुए हैं, और जिनमे दुसरो को निर्वाण तक पहुचाने की क्षमता हो। बुद्ध भी इसी कोटि का शबद हैजो जाग गए हैं और जो दुसरो को नींद से जगाने में सक्षम हैं ,बोधिसत्व भी एक शब्द है, जिसका अर्थ है,वो जो जाग गए हैं पर दुसरो को जगाने की क्षमता के अभाव सहित।</span><br /> उपरोक्त विवेचनाओ के प्रकाश में अघोर शब्द का सुस्पष्ट अर्थ मेरी दृष्टि में यही है, की अघोर वो अवस्था है, जहाँ व्यक्ति भगवत्ता को उपलब्ध हो जाता है, और वो दुसरो को भी रूपांतरित करने की क्षमता से परिपूर्ण हो जाता है.कमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-4371837884253991038.post-59558686123423726232010-11-11T23:53:00.000-08:002010-11-12T00:45:52.813-08:00अथ अघोर उपनिषद्उपनिषद् अर्थात तत्ववेत्ता के चरणों में बैठकर जाने गए वो अपूर्व सूत्र जो व्यवहार में लाने पर अज्ञात के प्रति प्यास बन जाते हैं। उपनिषद् संसार के कुछ अनूठे शब्दों में से एक है , कुछ ही शब्द ऐसे हैं जो अज्ञात ओर प्रेम को अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं, उपनिषद् वैसा ही शब्द है । अज्ञात ओर प्रेम यूँ तो पर्यायवाची हैं व्याकरण या व्यवहार की दृष्टि से नहीं अपितु अनुभव की दृष्टि से, अर्थात अगर अज्ञात की खोज में चले तो प्रेम में उतरना होगा ही और अगर प्रेम में उतारोगे तो अंततः अज्ञात तक पहुँच ही जाओगे। अघोर शब्द भी इसी कोटि का शब्द है, अघोर की परिभाषा लोग सहज ही अ + घोर अर्थात जो घोर नहीं है यह कह कर करते हैं , जबकि अघोर शब्द अपने अन्दर अज्ञात की प्रतीति समेटे हुए हैं , अघोर प्रकृति का समानार्थी भी हो सकता है कुछ अर्थो में, अहिंसा शब्द की कोटि में रख सकते हैं अघोर को, अहिंसा जहाँ गुण है वहीँ अघोर वो पद है वो ठौर है जहाँ पहुँचाने पर अहिंसा प्रेम सरलता सहजता स्वतः प्रगट हो जाते हैं ।<br /> अब बात करूँ अघोर उपनिषद् की यह वो सूत्र हैं जो अघोर साधको के अनुभवों का वाणियो का सूत्रों का संकलन है, इन्हें अघोर सूत्र भी कहा जा सकता है, सूत्र अर्थात धागा, प्रेम की तरह महीन पर अज्ञात और हमारे बिच में सेतु बन जाने की सामर्थ्य सहित, सूत्र दुसरे अर्थो में बीज भी हो सकता है, संभवतः बीज शब्द ज्यादा उचित है, सूत्र सदा से बीज की तरह ही लघु रहा है उपनिषद् के सूत्र भी छोटे हैं , परन्तु लघु होते हुए भी विराट की संभावना सहित , जिस तरह बीज अपने अन्दर विशाल वृक्ष की संभावनाओं सहित जन्म लेता है उसी तरह यह सूत्र भी अनंत की अज्ञात की विराट कीप्रतीति कराने में सक्षम होते हैं, वस्तुतः यह सिर्फ इशारे हैं उस अज्ञात की और इंगित करने हेतु , उस मार्ग में चलने की प्रेरणा हैं , जो आपको अज्ञेय की प्रतीति करा दे।<br /> लीजिये एक और अनूठा शब्द आ गया अज्ञेय अर्थात जिसे जाना ना जा सके, अज्ञात वो जिसे जाना ना गया हो पर अज्ञेय जिसे जाना ही नहीं जा सकता है, हाँ उसके प्रेम में पड़सकते हैं उसे अनुभव भी कर सकते हैं , वो हो सकते हैं पर उसे जान नहीं सकते, कह नहीं सकते , नेति नेति कहके जहा ऋषियों ने अपनी वाणी को विराम दे दिया और अनुभव के आनंद में लीन हो गए।<br /> अघोर उपनिषद् ऐसे ही सूत्रों पर मेरे निजी विचार हैं जो मैं आपसे बांटना चाहता हूँ , जिन्हें मैंने अघोर पथिको सदगुरुओं के चरणों में बैठकर सूना है, कुछ को पढ़ा है , जो मुझे लगा वो मैंने मनन किया है और जब बात अनुभव में आ गयी तो उसे लिपिबद्ध करने बैठ गया। यह मैं कोई सूत्र पर टीका नहीं कर रहा ना मेरा आपसे ऐसा कोई आग्रह है की आप इसे माने , मेरी कोशिश है की इन सूत्रों पर आप विचार करे । संबवतःसंभवतः आप विचार करते करते उपलब्ध हो जाएँ या उपलब्ध कर ले और कुछ हो ना हो उस अज्ञात की थोड़ी प्रतीति हो ना हो प्रीती भी हो जाए आपके भीतर तो खुद को धन्य समझूंगा।<br /> प्रेम तत्सतकमल शर्माhttp://www.blogger.com/profile/13787215151425155545noreply@blogger.com0