Monday, December 27, 2010

चतुर्थ सूत्र - " एकांतवास सबसे अमूल्य धन है" "

पूज्य अघोरेश्वर भगवन रामजी को अघोर पथ के पथिक, भक्त , प्रेमी और शिष्य प्रेम से श्रद्धा से मालिक, सरकार बाबा और सरकार कहते हैं। आज का सूत्र सरकार के श्री मुख से निकल कर परिग्रह के रोग से ग्रस्त समाज के लिए संजीवनी बन कर प्रगट हुआ था। मानव जाती के इतिहास को उठा कर देखे तो हमें ज्ञात होता है, कि मनुष्य सदा से परिग्रह करता रहा है। परिग्रह अर्थात जमा करना, संग्रह करना, इकठ्ठा करना मनुष्य का मूलभूत स्वभाव है। मनुष्य अपने जन्म के साथ एक बंधन लेकर आता है, इच्छा या लोभ जिसके वशीभूत वो पाने कि कामना करता है, और यही कामना आगे परिग्रह का स्वरुप ले लेता है। परिग्रह सिर्फ धन का नहीं होता है, बल्कि यह कहना ज्यादा सही होगा, कि किसी भी प्रकार का परिग्रह करके मनुष्य स्वयं को धनी मान लेता है। हर व्यक्ति के लिए धन कि परिभाषा अलग होती है। एक व्यक्ति रुपया पैसा जमा करता है, एक व्यक्ति हीरे जवाहरात जमा करता है। किसी को किताबे जमा करने का शौक होता है, कुछ लोग तो डाक टिकिट, पुराने सिक्के, पुराने सामान, माचिस के खाली डिब्बे और जाने क्या क्या जमा कर लेते हैं। प्राप्त प्राप्त आनंद सयाने लोग समझदार लोग विचारों का संग्रह कर लेते हैं, जिन्हें हम दार्शनिक कहते हैं। कुछ महात्मा होते हैं वो सिद्धियों का संग्रह कर लेते हैं, मान्त्रिक मंत्रो का संग्रह कर लेते हैं, गुरु शिष्यों का संग्रह कर लेते हैं, मठाधीश आश्रमों का संग्रह कर लेते हैं। अलग अलग लोगो को अलग अलग प्रकार कि चीज़े जमा करने का शौक होता है, इन सबके पीछे मूल रूप में परिग्रह कि भावना ही विद्यमान होती है। जो जमा हो रहा है ,वो उस व्यक्ति कि पूँजी है, धन है।गुरु के लिए शिष्य धन हैं, धन्ना सेठों के लिए हीरे जवाहरात धन हैं, नेता के लिए समर्थक धन हैं, दार्शनिको के लिए विचार धन हैं, मांत्रिको के लिए मन्त्र धन हैं, तांत्रिक के लिए सिद्धियाँ धन हैं, डाक टिकट का संग्रहकर्ता डाक टिकट को अपनी पूँजी अपना धन मानता है। परिग्रह बहुत मूल्यवान शब्द है जिसका हमने बहुत स्थूल अर्थ लिया है, सिर्फ रुपया पैसा हीरे मोती जमीन जायजाद के संग्रह को परिग्रह कहा है हमने। जिस तरह नशा कोई भी हो नशा होता होता है, चाहे शराब का ,चाहे चाय का, चाहे सत्संग का, चाहे भजन का । ठीक उसी तरह परिग्रह किसी भी वस्तु के संग्रह की कामना को कहा जाता है।

मनुष्य के धनी होने कि कामना के मूल में परिग्रह विद्यमान है। क्या जमा कर रहे हैं, इसका सवाल नहीं है, रद्दी जमा करने वालो में जिसके पास ज्यादा रद्दी है वो ज्यादा धनी है। धन से मनुष्य का पीछा कभी नहीं छूटता। क्योंकि जन्म से ही लोभ और कामना लेकर आये हैं हम। एक बहुत महान संत हुए हैं धनी धर्मदास, अब बताइये संत हैं जागृत पुरुष हैं, पर नाम के आगे धनी लगा है, पर बात सही है, हमारे पास बाहर का धन है उनके पास अन्दर का धन था। धर्मदास अपने अन्दर के खजाने को पा चुके थे , इसलिए धनी धर्मदास कहलाये। तुम धन के बिना मानते ही नहीं हो, सदियों से तुमको लालच देना पड़ता है, अच्छे की तरफ प्रेरित करने के लिए भी, परमात्मा की तरफ प्रेरित करने के लिए भी। किसी ने कहा प्रभु का साम्राज्य तुम्हारे भीतर है, कोई कहता है तुम्हारे भीतर अनंत शक्ति का वास है , कोई कहता है, बाहरी धन को छोडो ,अन्दर के धन को पा लो। अजीब बात है, पर है सच, तुम्हे लालच दिखाना पड़ता है, बाहरी नहीं तो भीतरी धन का लालच। क्या करे तुम वो गधे हो, जिसके आगे अगर घास ना बाँधी जाए तो तुम एक कदम भी आगे ना बढ़ो। बिना स्वार्थ बिना लोभ के तुम कुछ करते ही नहीं, जहाँ स्वार्थ नहीं वहां का तुम पता भी रखना ज़रूरी नहीं समझते।इसलिए संतो ने बुद्धो ने यह तरकीब निकाली थी। उन्हें मालूम था तुम्हे सीधे अपरिग्रह में नहीं उतारा जा सकता है, तुम्हे एकदम से अपरिग्रह के लिए तैयार करना मुश्किल है, तो पहले तुम्हे भीतर के धन का लोभ दिया ताकि तुम बाहरी धन को भूल जाओ। संसार में महावीर ने सबसे ज्यादा अपरिग्रह पर जोर दिया, वैसे तो पंतांजलि ने भी अष्टांग योग के यम नियम प्रकरण में अपरिग्रह को स्थान दिया है, परन्तु महावीर ने इसे एक व्रत एक सूत्र एक साधना पद्धति एक तप के रूप में स्वीकार किया। पर विडम्बना है, की महावीर के अनुयायी ही सबसे ज्यादा परिग्रही बन के उभरे हैं, ना सिर्फ गृहस्थ बल्कि साधू भी जो खुद के पास कुछ भी नहीं रखते वो भी मंदिरों के नाम पर तीर्थो के नाम पर परिग्रह कर रहे हैं। क्या कर सकते हैं, संग्रह परिग्रह हमारे स्वभाव में हैं, मन रास्ते निकाल ही लेता है।बुद्ध पुरुषों को पता था अघोरेश्वर जानते थे, तुम्हारा यह स्वभाव तो बदलने से रहा, इसकी तो बात ही करना बेकार है। धन की लालसा छोड़ नहीं सकते तुम। तब बुद्धो ने, सिद्धो ने, अरिहंतो ने, अघोरेश्वर ने तुम्हे उस धन का पता दिया उस धन की खबर दी जो तुम्हारे भीतर है।



पूज्य सरकार कहते हैं, " सुधर्मा, सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप-धन भी होता है, सुषुप्ता-धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, श्रद्धा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है।

सरकार ने धन संचय से मना नहीं किया, पर किस प्रकार का धन संचय करना और किस प्रकार से धन संचय करना है, यह भी बताया जिसके पीछे भावना संचय से मुक्ति की थी। सर्वोत्तम धन और सर्वोत्तम धनवान के बारे में भी समझा दिया। वो जानते थे, जैसे जैसे ज्यादा मूल्य की वस्तु तुम्हे मिलने लगेगी तुम कम मूल्य की वस्तु का त्याग कर दोगे। यही स्वभाव है तुम्हारा, जो मिला उसका मूल्य खो गया तुम्हारे लिए, ज्यादा मूल्यवान मिला तो कम मूल्यवान का त्याग कर दिया तुमने। इसलिए तुम्हे तुम्हारी भाषा में समझाना पड़ता है। सरकार ने कहा एकांतवास सबसे मूल्यवान धन है, सबसे मूल्यवान की खोज में जाओगे तो कम मूल्यवान के प्रति मोह त्यागना ही होगा। अपनी झोली खाली करनी पड़ेगी तुम्हे । एक व्यक्ति ने सुना था की दूर पहाडो में ताम्बे की खान है। वो निकला झोली उठाकर की थोडा इकठ्ठा करके ले आऊंगा। वो वहां पहुंचा और ताम्बे से झोली भर ली तभी एक दुसरा व्यक्ति वहां पहुंचा और बोला अरे भाई आगे और जाने पर चांदी की खान मिलेगी। उसने जो ताम्बा जमा किया था, वो झोली से निकाल कर फेंका क्योंकि थोडा बेवकूफ था, तुम्हारी तरह होता तो पहले चांदी की खान पे पहुँचता और जब निश्चित कर लेता की चांदी है, तब वो झोली खाली करके चांदी भर लेता। पर कम पढ़ा लिखा था , झोली खाली कर दी वहीँ, और याद रखना ऐसे ही कम पढ़े लिखे लोग ही कुछ पाते हैं जीवन में, आध्यात्म ममें उतरना है तो पहले खुद के कचरा ज्ञान को खाली करना पड़ेगा। खैर वो आगे बाधा तो चांदी की खान मिली , फिर वही किया फिर एक व्यक्ति मिला और बताया की आगे सोने की खान है, और इस तरह वो झोली खाली करता गया और भरता गया, जितना आगे जाता उतना मूल्यवान धन मिलते जाता। सार इतना ही है की झोली खाली करनी पड़ेगी हर बार, जो पाया उस से मुक्त होना पड़ेगा हर बार तब आगे की यात्रा हो सकेगी। सारे साधक स्वीकारते हैं की साधना मार्ग में तरह तरह के प्रलोभन हैं, कथाये कहती हैं, की जब कोई महान तपस्वी कड़ी तपस्या करता था तो इन्द्र का आसन डोलने लगता था, और इन्द्र अप्सराये भेजता था साधना भंग करने। आज भी यह होता है, कथा अर्थपूर्ण है, सच है पर सांकेतिक। इंद्र का अर्थ है इन्द्रियों सहित मन, और अप्सराओं का अर्थ है , विषय भोग का भ्रम। जब आप अपने भीतर प्रवेश करने लगते हैं, जब आप केंद्र की और यात्रा आरम्भ करते हैं, तो इन्द्रिया सिकुड़ने लगती हैं, सिमटने लगती हैं, तब मन की घबडाहट शुरू होती है, उसका आसन डोलने लगता है, की उसके सिपाही यह इन्द्रियाँ भी केंद्र की और सिमट रही हैं। तब मन विषयो का एक भ्रम जाल तैयार करता है, इन्द्रियों को वापस लाने और आप उस भ्रम का शिकार हो जाते हैं। मन आपके समक्ष एक झूठा दर्शन झूठा आत्म-साक्षात्कार भी प्रगट कर देता है,ताकि आप अपनी यात्रा रोक दे। मन विस्तार का प्रेमी है, मन चलायमान है, वो स्थिर होना जानता ही नहीं, उसे ठहराव पसंद नहीं, और तुम्हारा मूल स्वभाव है स्थिरता। यही इन्द्रियों सहित मन कहलाता है ,इंद्र, और मन द्वारा प्रक्षेपित विषय का भ्रम अप्सराएं है। साधना पथ में सिद्धिया भी हैं , पर अगर आप आत्म-साक्षात्कार की यात्रा पे हैं, तो सिद्धियों को भी छोड़ना होगा। तभी आगे की यात्रा संभव है, सिर्फ आपकी जरुरत है, इस मार्ग में और किसी दूसरी चीज़ की नहीं, खुद को खाली करते जाइए तभी आप इस मार्ग के अधिकारी होंगे। इसी तरह मनुष्य को उसके भीतर की यात्रा की और ले जाने के लिए उसे भीतर के धन की झलक दिखानी पड़ती है।

पूज्य सरकार कहते हैं, " सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है" एकांतवास का प्रचलित अर्थ होता है, अकेले निवास करना, जहाँ दुसरा कोई ना हो। पर यह संभव ही नहीं, जहाँ चले जाओ खुद को कभी अकेला कभी नहीं कर सकते हो। एकांत का एक और अर्थ होता है, एक का अंत। एक बार की बात है, मैं अपने गुरुदेव के पास गया , वो अकेले बैठे थे तो मैंने सोचा उनके सानिध्य का लाभ ले लूँ। मैंने जाते ही कहा बाबा आप अकेले बैठे हैं, तो उन्होंने कहा' अभी तक तो अपने साथ था तुम्हारे आने से अब अकेला हो गया हूँ"। आज उस बात का अर्थ समझ में आता है, जब हम किसी और के साथ नहीं होते तब हम अपने साथ होते हैं, या परमात्मा के साथ होते हैं। आप कहीं भी चले जाइए परमात्मा सदा विद्यमान है वो घट घट में है, आपमें भी वही ज्योति विद्यमान होती है।तो जब भी आप अकेले होंगे तो दो हो जायेंगे, एक मैं और एक वो, अगर मैं को पाना है , तो वो का अंत आवश्यक है, और अगर वो को पाना है तो मैं का अंत करना पड़ेगा । दोनों में से किसी एक का अंत आवश्यक है, तभी एकांत घटेगा और इस अवस्था में स्थिर हो जाना ही एकांतवास है। इसे थोडा ठीक से समझे, ध्यान के मार्ग पे चलना है, ज्ञान के मार्ग पे चलना है, तो "मैं" को जीना होगा, इस मार्ग में "वो" याने परमात्मा का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। अगर भक्ति के मार्ग पे चलना है, अगर प्रेम के मार्ग पे चलना है, तो फिर "मैं" को भूलना होगा मैं का अस्तित्व ख़त्म करना होगा। भक्ति में वो ही वो होता है और ज्ञान में मैं ही मैं होता है। ध्यान में मैं ही मैं और प्रेम में वो ही वो। पर एक गज़ब बात है एक से चलोगे तो दुसरे तक पहुँच जाओगे, ज्ञान से चलोगे तो भक्ति में उतर जाओगे और भक्ति से चलोगे तो ज्ञान प्रगट हो जाएगा।दुसरे शब्दों में कहें तो ध्यान से चलोगे तो प्रेम में उतर जाओगे और प्रेम से चलोगे तो ध्यान में प्रवेश कर जाओगे। यह अजब गोरखधंधा है, अलग अलग मार्ग हैं पर आकर एक दुसरे से मिल जाते हैं। और मिले भी क्यों नहीं जब मंजिल एक होती है तो रास्ते अक्सर टकरा जाते हैं। मंजिल पार पहुँच कर कौन रास्तो की खबर रखता कौन मील के पत्थरो का हिसाब रखता है। इस एकांतवास के लिए किसी एक का अंत तो करना ही पड़ेगा , पर इस दो तक पहुँचने के लिए स्थूल एकांतवास में जाना होगा, आशय यह है की, सबको भूला कर खुद के साथ रहना होगा। आपको कहीं जंगल जाने की जरूरत नहीं है, सरकार तुम्हे घर से भागने भी नहीं कह रहे हैं, तुम्हे पलायन करके हिमालय जाने भी नहीं कहते, वो तो बस कहते हैं की इस दुनिया में रहते हुए बस ज़रा सा भीतर सरक जाओ अपने। आँखें बंद करो बाहरी तमाशा ख़त्म, कान बंद तो बाहरी बातें ख़त्म, जहाँ हो वहीँ एकांतवास घट सकता है।बस अपने भीतर सरक जाओ , पूरी दुनिया को भूल कर अपने साथ हो जाओ, खुद की सुनो खुद से बोलो, खुल ही बांधो खुद ही खोलो । जहाँ हो बस वहीँ पर ठहर जाओ, जब अपने साथ रहना शुरू कर दोगे, तब एक नए तमाशे एक नयी दुनिया से साक्षात्कार होगाअभी तक तो दुनिया की भीड़ थी , दुनिया का शोर था, दुनिया के विषय थे, भीतर उतारोगे तो उस से ज्यादा शोर सुनाई देगा, उस से ज्यादा भीड़ दिखाई देगी, विषय भोग तैयार मिलेंगे। भीतर के दरवाजे पर बैठा मन रुपी इंद्र प्रवेश करने नहीं देगा। विचारों की भीड़ तुम्हारा स्वागत करेगी, अतीत की आवाज़े गीत बनकर अभिनन्दन करेंगी, मन विषय भोग का प्रक्षेपण करेगा, अप्सराएं सिद्धियाँ, भविष्य के संकेत जाने क्या क्या नज़र आएगा। भीतर जाकर भी जूझना होगा एकांत को पाने के लिए.तुम्हारे यह गेरुए वस्त्र धारी तथाकथित हिमालय के योगी यह दिगंबर साधू आँखे बंद करके मन के प्रक्षेपण को ही सबकुछ मानकर जी रहे होते हैं। हमें सिर्फ दीखता है की वो जंगल में हिमालय में पहाडो में अकेले जी रहे हैं। अरे मेरे भाई जिसे अकेले जीना आ गया , जिसने एकांत का रहस्य समझ लिया वो भीड़ में भी अकेलेपन को जीना जानता है। क्या हिमालय क्या दुनिया सब एक हैं, ज़रा सा भीतर सरकने की ही तो देर हैं। जिसने यह सरकने की कला जान ली है, उसे कहीं जाने की ज़रूरत नहीं है। एकांतवास सबसे मूल्यवान है, जब सबकुछ भूल कर अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे परिवर्तन आरम्भ होगा। जब अपने साथ रहना शुरू करोगे तब धीरे धीरे शनैः शनैः पहले बाहर का शोर तुम्हे प्रभावित करना बंद कर देगा, फिर धीरे धीरे भीतर का शोर भी बंद हो जाएगा, तब विचार शुन्यता की स्थिति पर पहुंचोगे और प्रवेश कर जाओगे वास्तविक एकांत में और बस वहीँ स्थिर हो जाना , उस अवस्था में ठहर जाना उस पल के साथ रहना ही एकांतवास है।
अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो : परम
प्रेम तत्सत

1 comment:

  1. अपने रजनीश(ओशो) के प्रवचनों का सटीक प्रयोग किया है . परन्तु इसे अपना अनुभव कहना गलत है पाप है .

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