Wednesday, December 29, 2010

पंचम सूत्र- " ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास से प्राप्त आनंद सभी रत्नों के पाने से अधिक है"

प्रिय मित्रो अघोर उपनिषद् का पंचम सूत्र, चतुर्थ सूत्र का ही दुसरा भाग है। पूज्य सरकार की जिस वाणी से यह सूत्र निकला है वो इस तरह है।



" सुधर्मा सबसे मूल्यवान धन एकांतवास होता है। वचन-धन भी होता है, विश्वास-धन भी होता है, ताप धन भी होता है, सुषुप्ता-धन भी होता है, विवेक-धन भी होता है, शालीनता-धन भी होता है, श्रद्धा-धन भी होता है, शील-धन भी होता है। इन सभी तरह के धन के साथ अच्छा धनवान, ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास करता है.वह देव को खरीदता है। धन की क्रय शक्ति से संसार के सभी रत्नों के पाने का जो आनंद होता है, ब्रम्हचर्य के साथ एकांतवास की शक्ति से प्राप्त आनंद उससे कहीं अधिक होता है।"

चतुर्थ सूत्र में पूज्य अघोरेश्वर ने हमें एकांतवास की प्रेरणा दी और आगे बढ़कर सरकार ने कहा की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास , ब्रह्मचर्य - संसार के सुन्दरतम, रहस्यात्मक और अर्थपूर्ण शब्दों में से एक है। हिन्दू धर्म ने जगत को एक अमूल्य उपहार दिया इस शब्द के रूप में। ब्रह्मचर्य का अर्थ बहुत विराट है, परन्तु सदियों से चले आ रहे इस शब्द के साथ के साथ अनगिनत परिभाषाएं जुडती चली गयीं और आज ब्रह्मचर्य अपने क्षुद्रतम अर्थ को प्राप्त हो गया है। आज ब्रह्मचर्य का अर्थ है- यौन संबंधो का निषेध, विपरीत लिंगी के प्रति अनासक्ति, अनासक्ति ही नहीं घृणा। यह अर्थ कदापि हिन्दू धर्म का नहीं हो सकता , यह अर्थ बुद्ध और महावीर के बाद प्रचलन में आया है। भारतवर्ष की साधुताई और आध्यात्म को पूरी तरह से तोड़ मरोड़ कर एक अलग ही रूप दे दिया बौद्ध और जैन धर्म ने। मैं बुद्ध या महावीर के ब्रह्मचर्य की बुराई नहीं कर रहा, उनका ब्रह्मचर्य भी अपने अर्थो में सहीं था, परन्तु वो उनके लिए सही था जो उनके मार्ग पर चलना चाहते थे। गौतम बुद्ध और महावीर भारतवर्ष के आध्यात्म को वैज्ञानिक दृष्टि देने वाले लोग हैं, परन्तु उनकी छाया और प्रभाव में हिन्दू धर्म के बहुत से सिद्धांतो ने अपने रूप को बदल लिया।

स्त्री जाती के प्रति अत्याचार और हेय दृष्टि का प्रतीक बना दिया ब्रह्मचर्य को। जिस देश के तंत्र विज्ञान ने स्त्री जाती को परमात्मा के रूप में इश्वर के रूप में स्वीकारा हो, उसी देश में स्त्री नरक का द्वार हो गयी, स्त्री की और देखना पाप हो गया, स्त्री को पशु कहा गया और ताडन के लायक कहा गया। महावीर ने कहा स्त्री मुक्त नहीं हो सकती, उसे मुक्त होने के लिए अगले जन्म में पुरुष के रूप में जन्म लेना होगा, बुद्ध ने शुरू में स्त्रियों को अपने संघ में जगह नहीं दी इसी भावना के कारण। जबकि ब्रह्मचर्य में स्त्री और पुरुष का कोई लेना देना ही नहीं है। प्राचीन काल में ऋषि मुनि गृहस्थ जीवन व्यतीत करते थे, ऋषि पत्नियां भी बहुत जागृत और ग्यानी होती थी। आत्मसाक्षात्कार का जितना अधिकार पुरुषो को था उतना ही स्त्रियों को भी था। आज तो स्तिथि यह है की वर्धमान महावीर जो विवाहित थे, उनके अनुयायी इस सच से इनकार करते हैं, जितना दूर कर सको स्त्री को उतना ही अच्छा। वाह रे तुम्हारा ब्रह्मचर्य । ब्रह्मचर्य को पूर्ण गरिमा प्राचीन काल में ही मिली थी। मैंने एक कथा सुनी थी, एक ऋषि ने अपने पुत्र को दुसरे ऋषि के पास सन्देश लेकर भेजा था, पुत्र ने पिता से कहा की राह में एक नदी पड़ती है, कैसे पार करूँगा। ऋषि ने कहा जाकर नदी से कहना,अगर मेरे पिता ने एक पल भी ब्रह्मचर्य का व्रत ना त्यागा हो, स्वप्न में भी नहीं, तो हे नदी तू मुझे रास्ता दे दे। कथा कहती है की नदी ने रास्ता दे दिया। कैसा विरोधाभास है, एक पुत्र का पिता और ब्रह्मचारी, परन्तु आज की परिभाषा से चलेंगे तो विरोधाभास पर पहुंचेंगे, पर ब्रह्मचर्य की मूल भावना और अर्थ का अनुभव कर लेंगे, तो इस सत्य से आपका भी परिचय हो जाएगा।

मेरे विचार में ब्रह्मचर्य शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं, एक अर्थ तो इस शब्द में ही छुपा हुआ है, ब्रह्मचर्य- अर्थात ब्रह्म की चर्या। ब्रह्म की चर्या को अपने भीतर उतार लेना, अपनी चर्या को ब्रह्म की चर्या की तरह बना लेना ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म की तरह आचरण, व्यवहार और क्रिया कलाप ही ब्रह्मचर्य है। शब्द कल्पद्रुम भी ऐसा ही कुछ कहता है, " ब्रह्मणे वेदार्थंचर्यं आचार्नियम"

अर्थात ब्रह्म सा आचरण ही ब्रह्मचर्य है। ब्रह्म अर्थात एक जहां दो की संभावना नहीं होती, सारा जगत ब्रह्म है, जब सब कुछ वही एक है, तो फिर किसके प्रति आसक्ति और आकर्षण। निर्विकार, निराकार, निर्विशेष में भेद की बात ही कहाँ , और जब भेद ही नहीं तो कौन स्त्री और कौन पुरुष। जहाँ जीव और ब्रह्म में भेद नहीं रह जाता, उस अभेद अवस्था का नाम ब्रह्मचर्य है। उपनिषदों ने कहा है, " जगद्दृपद याप्ये तद्ब्रह्मैव प्रतिभासते , विद्या अविध्यादी भेद भावा अभावादी भेदतः " इस जगत के रूप में ब्रह्म ही दिखाई देता है, विद्या-अविद्या , भाव-अभाव आदि के भेद से जो भी दृष्टिगोचर होता है, वह ब्रह्म ही है। इसी तरह ब्रह्मचारी का अर्थ होता है जो ब्रह्मचर्य का सेवन करे, " ब्रह्मणि वेदे चरती इती ब्रह्मचारी "। प्राचीन काल में कहा जाता था, जो वेदान्त और ब्रह्म चिंतन में लीन रहता है, वही ब्रह्मचारी है। प्राचीन काल में कहीं भी स्त्री संग का निषेध नहीं किया गया है। उपनिषदों में आया है, " कायेन वाचा मनसा स्त्रीणाम परिविवार्जनाम, ऋतो भार्याम तदा स्वस्य ब्रह्मचर्यं तदुच्यते " अर्थात मन वाणी और शारीर से नारी प्रसंग का परित्याग तथा धर्म बुद्धि से ऋतू काल में ही स्त्री प्रसंग ब्रह्मचर्य है "। अगर आप गृहस्थ हैं तो रितुबद्ध होकर स्त्री संग करते हुए भी आप ब्रह्मचर्य को प्राप्त कर सकते हैं, बल्कि इन अर्थो में तो ब्रह्मचर्य ग्रहस्थो को ही प्राप्त है। प्राचीन काल में ब्रह्मचर्य का कोई सम्बन्ध काम वासना अथवा शारीर के किसी भी स्थिति में नहीं था। बुद्ध और महावीर के बाद हज़ारों युवक अपनी पत्नियों को घर को छोड़ कर भिक्षु बन गए , तब ब्रह्मचर्य का अर्थ सिर्फ स्त्री निषेध बन गया।

मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का दुसरा अर्थ आज के प्रचलित अर्थ के आस पास ही है, परन्तु मेरी दृष्टि में ब्रह्मचर्य बाहर से आरोपित ना होकर अन्दर से प्रस्फूटित होता है। हठयोग प्रदीपिका कहती है " मरणं बिन्दुपाते , जीवनं बिंदु धारणं " अर्थात वीर्य का पतन मृत्यु है , और वीर्य को धारण करना जीवन है। मेरे विचार में ब्रह्मचर्य का जो दुसरा अर्थ है, उसका सम्बन्ध वीर्य के रक्षण, पोषण, उत्थान एवं ऊर्ध्वगमन से है। यहाँ भी मैं स्त्री का कोई निषेध नहीं देख पाटा हूँ। यह मेरे निजी विचार और अनुभव की बात है। वीर्यपात प्राकृतिक हो या दें किसी भी रूप में नहीं होना चाहिए। परन्तु यह संभव नहीं दीखता क्योंकि आज का ब्रह्मचर्य थोपा हुआ है, आरोपित है, लादा गया है, आज ब्रह्मचर्य दमन से प्राप्त करने का प्रयास किया जा रहा है। दमित काम वासना से उपजा ब्रह्मचर्य पानी का बुलबुला है, यह वो सूखी घास है, जिसे एक चिंगारी मिली और यह जल उठेगा। दमित भावनाएं, संवेदनाएं, विकृति बनकर बाहर आती हैं.ब्रह्मचर्य अज्ञात के मार्ग पर सरल सहज स्वाभाविक रूप से आपके भीतर प्रगट होता है, उसके लिए प्रयास करने की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है। ब्रह्मचर्य भी अज्ञात के मार्ग में प्राप्त होने वाला धन है, जो आपको स्वतः मिलेगा स्वतः घटेगा स्वतः भीतर से प्रस्फूटित होगा। ब्रह्मचर्य वीर्य को धारण करना है, वीर्य का रक्षण करना है, वीर्य को अधोगति के विपरीत ऊर्ध्वगति देना है, अब यह अकेले हो या स्त्री के संग हो कोई अंतर नहीं पड़ता है। अघोर संतो में यह कहावत प्रचलित है,

" भग बिच लिंग लिंग बिच पारा, जो राखे सो गुरु हमारा "
अर्थात जो संभोगरत अवस्था में भी पारा(वीर्य) को राखे अर्थात धारण करे, उसे अधोगति अर्थात पतन की तरफ ना ले जाकर ऊर्ध्वगति की तरफ ले जाए याने उसे ऊपर चढ़ा दे , वही गुरु है, वही सच्चे अर्थो में ब्रह्मचारी है। यह तभी संभव होता है, जब क्रिया होती है परन्तु करता कर्म से सम्बंधित नहीं होता है। वो उस क्रिया में अनुपस्थित होता है। उपनिषदों में कहा गया है, " वासनामुदयो भोग्ये वैराग्यस्य तदावधिः" जब भोगने योग्य पदार्थ की उपस्थिति में भी वासना उदित ना हो, जब भोग भी वासना रहित हो , तब वैराग्य की स्थिति जानना चाहिए"। ब्रह्मचर्य उस स्थिति का नाम है, जो देह में होते हुए भी विदेही हैं, जिसकी देहबुद्धी ऊपर उठकर आत्मबुद्धि में रूपांतरित हो गयी है, जो शारीर से ऊपर उठकर आत्मा में रमण करने लगा हो, वो ब्रह्मचारी है। वीर्य का रक्षण और ऊर्ध्वगमन ब्रह्मचर्य की प्रथम स्थिति है, परन्तु फिर कहता हूँ जबरदस्ती नहीं, स्वतः। वीर्य जब पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में नीचे की तरफ यात्रा करता है, तो वो अधोगति कहलाती है, और जब साधक की साधना के फलस्वरूप जब वीर्य पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मुक्त होकर अधोगति नहीं ऊर्ध्वगति की तरफ यात्रा करता तब ब्रह्मचर्य घटता है। यह संभव है, बिलकुल उसी तरह जैसे पानी शुन्य तापमान से नीचे जाता है तो गुरुत्वाकर्षण का बल पाकर ठोस बर्फ बन जाता है, पर जब पानी गरम होता है और तापमान शुन्य से ऊपर उठता है तो भाप बनकर ऊपर की तरफ उठने लगता है, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। जिस तरह पानी की निचे की तरफ यात्रा उसे ठोस बनाती है , गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव में ले आती है और ऊपर की तरफ यात्रा उसे भाप बनाकर गुरुत्वाकर्षण से मुक्त करती है, उसी तरह वीर्य की अधोगति मनुष्य को माया के प्रभाव में ले आती है , मृत्यु की तरफ और वीर्य की ऊर्ध्वगति उसे माया के प्रभाव से मुक्त करके जीवन अर्थात परमात्मा की तरफ बढ़ा देती है।
तंत्र मार्ग के पथिक मेरी इस बात का समर्थन करेंगे, की कुण्डलिनी जब जागती है, तो वासना का तूफ़ान हिलोरे मारता है, कुण्डलिनी मूलतः काम ऊर्जा ही है, अगर उसे ऊपर उठने का मार्ग नहीं मिलता है, तो वो दुसरे रूप में अपनी शक्ति को प्रवाहित कर देती है, सम्भोग की चरम अवस्था करीब करीब समाधि की तरह ही होती है, यह वो क्षण है जब आप अपनी काम ऊर्जा को ऊपर की तरफ गति दे सकते हैं। सामान्यतः अधोगति के फलस्वरूप वीर्यपतन हो जाता है, और काम ऊर्जा शांत हो जाती है। कुण्डलिनी जब ऊपर के चक्रों की तरफ आगे बढती है, तो वापस निचे उतर आती है। वासनाओं के प्रभाव में कुण्डलिनी बार बार निचे उतर आती है, परन्तु अगर कुण्डलिनी एक बार आज्ञा चक्र में प्रवेश कर जाए तो फिर वो वहां स्थिर हो जाती है और अगर साधक शक्ति दे तो ऊपर की तरफ बढ़ जाती है। आज्ञा चक्र में प्रवेश करते ही काम वासना विलीन हो जाती है, साधक काम से ऊपर उठ जाता है। तंत्र के पथिको ने आज्ञा चक्र में अर्ध नारीश्वर की कल्पना की है, यह कल्पना नहीं यथार्थ है, विज्ञान भी स्वीकारता है, की, हर स्त्री में एक पुरुष विद्यमान है और हर पुरुष में एक स्त्री।
जब साधक या साधिका की चेतना आज्ञा चक्र में प्रवेश करती है, जब कुण्डलिनी आज्ञा चक्र का भेदन करती है तो काम ऊर्जा राम ऊर्जा में रूपांतरित हो जाती है, साधक जीव संज्ञा से शिव संज्ञा में प्रविष्ट हो जाता है। आज्ञा चक्र में पुरुष साधक को अपने भीतर की स्त्री का दर्शन होता है और स्त्री साधक को अपने भीतर के पुरुष का, जैसे ही यह दर्शन मिलता है, वैसे ही बाहर की स्त्री या पुरुष विलीन हो जाता है, खो जाता है। बाहर की स्त्री या पुरुष में रस ख़त्म हो जाता है, आप अपने भीतर के पुरुष या स्त्री को पा लेते हैं, और साथ ही आप आतंरिक या आध्यात्मिक सम्भोग के रहस्य को जान लेते हैं, जो पंचमकार का एक सूक्ष्म मकार है। यह बिलकुल उसी तरह होता है , जैसे खेचरी मुद्रा में साधक ललना चक्र से टपकने वाली मदिरा का पान करके आनंद में रहता है। जैसे ही आपको भीतर का सौंदर्य मिलता है, बाहर का सौंदर्य खो जाता है ।संसार की स्त्री या पुरुष में कोई आकर्षण नहीं रह जाता है, कोई रस नहीं रह जाता है, यही वो घडी है, जब ब्रह्मचर्य आपके भीतर से प्रस्फूटित होता है. अब आप वो नहीं रहे आप रूपांतरित हो जाते हैं, यही वो जगह है जहाँ शिवत्व घटता है । वासना विदा हो जाती है आपके जीवन से, यहाँ से अधोगति की संभावना ख़त्म हो जाती है। यही वास्तविक ब्रह्मचर्य है।

अघोरेश्वर कह रहे हैं, इसलिए, की ब्रह्मचर्य के साथ एकांतवास सबसे मूल्यवान है। ब्रह्मचर्य को धारण करेंगे तो धीरे धीरे आप एकांत को प्राप्त करेंगे, और ऐसी अवस्था में वास करना स्थिर हो जाना एकांतवास है, जो की आपका सबसे मूल्यवान धन है।
प्रेम तत्सत



2 comments:

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  2. "अयमेव खो, भिक्खु, अरियो अट्ठण्गिको मग्गो ब्रह्मचरियं।
    यो खो, भिक्खु, रागक्खयो दोसक्खयो मोहक्खयो, इदं ब्रह्मचरियपरियोसानं॥ "
    --(धम्मवाणी, पृष्ठ ४३)
    भिक्षु! यह जो आर्य अष्टांगिक मार्ग है यही ब्रह्मचर्य है।
    यह जो राग-क्षय, द्वेष-क्षय, मोह-क्षय है यही ब्रह्मचर्य की परिणति है।

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