Wednesday, February 23, 2011

अपनी बात : धर्म और प्रेम

मित्रों,
अघोर उपनिषद् के छठवे सूत्र को लिखने बैठा था, तभी मन में एक विचार आया कि सदियों से मनुष्य के जीवन में एक बात हमेशा से रही है और वो है प्रेम। इसा मसीह ने कहा " अपने पड़ोसियों से प्रेम करो "। लोगो ने समझा जो पड़ोस में रहता है उस से प्रेम करना है। मेरे विचार में यह बहुत कीमती वचन था इसा का, पडोसी का अर्थ मेरे हिसाब से होता है जो आपके पास है, आप जहाँ रहते हैं वहां पास में रहने वाला पडोसी , आप जहाँ काम करते हैं वहां आपके पास काम करने वाला पडोसी, आप कहीं सफ़र पे जा रहे हैं तो आपके बाजू बैठा सहयात्री पडोसी हो गया, आप कहीं खड़े हैं तो आपके पास खड़ा व्यक्ति पडोसी हो गया, और इन सबसे ऊपर हैं आप जो अपने सबसे ज्यादा पास होते हैं, आपसे बढ़कर आपसे ज्यादा नजदीकी पडोसी आपके लिए कोई और नहीं, तो सबसे पहले प्रेम खुद से करें। वैसे भी कोई भी काम करना हो तो खुद से ही उसका आरम्भ उचित होता है, जब स्वयं पर परिक्षण खरा उतर जाए तब दुसरे पर करे। तो सबसे पहला प्रेम खुद से , पर आखिर ऐसी क्या बात है इस प्रेम में की हर धर्म हर मजहब हर सम्प्रदाय ने प्रेम की शिक्षा दी। बस दिक्कत यह हो गयी की प्रेम की शिक्षा ही दी गयी दीक्षा नहीं। जबसे से सृष्टि की रचना हुई है, तबसे दो बातें हमेशा साथ रही हैं, एक आकर्षण रहा दुसरा प्रेम। आकर्षण सदा से मस्तिष्क से आरम्भ होता आया है, और प्रेम ह्रदय से। आकर्षण वासना से प्रेरित होता है, वासना से मेरा अर्थ विविधता से ,प्रेम भावना से प्रेरित होता है, हमारे ह्रदय से उठते भाव किसी और के ह्रदय में स्थान पाने को इच्छुक हो जाते हैं। हम सिर्फ इतना चाहते हैं, की वो हमारे भाव को जान ले। यहाँ कुछ पाने की ख्वाहिश नहीं होती है, आकर्षण में पाने का भाव होता है। आकर्षण इन्द्रियों से शुरू होता है, चाहे वो आखें हो या कान या स्पर्शेन्द्रिय। हमें किसी की आवाज़ अच्छी लगती है तो किसी की खूबसूरती या किसी का स्पर्श, पर प्रेम मौन में घट जाता है, प्रेम बंद आखों में हो जाता है, प्रेम उपस्थिति मात्र से अंकुरित हो जाता है। कारण सिर्फ इतना है की प्रेम इन्द्रिय से नहीं ह्रदय से उठता है, प्रेम का मूल ह्रदय होता है। प्रेम मनुष्य का मूल स्वभाव है, कृष्ण गीता में कहते है, की स्वधर्म में मर जाना बेहतर है बजाय दुसरे धर्म में जीने के। धर्म का अर्थ बहुत गहरे में स्वभाव होता है, बल्कि मूल अर्थो में धर्म का अर्थ स्वभाव ही होता है। प्रेम एक मात्र ऐसा पडाव है, जहाँ के लिए आपको किसी को प्रेरित नहीं करना पड़ता है, बिरला ही ऐसा कोई होगा जो किसी के प्रेम में नहीं पड़ा होगा। प्रेम में जाना स्वाभाविक है, क्योंकि यह अज्ञात की प्रेरणा है, आपका जन्म ही अज्ञात के प्रेम में पड़ने के लिए ही हुआ है। अज्ञात ने आपके जीवन में वो बात का समावेश किया है जो उसकी प्रतीति कराती हैं। धर्म और प्रेम का बड़ा गहरा नाता है। अगर मैं यह कहूँ कि आध्यात्म जगत के ज्यादातर रास्ते प्रेम से ही निकले हैं तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। प्रेम का विशुद्ध रूप है भक्ति, और भक्ति को गौर से देखेंगे तो पायेंगे कि गहरे में भक्ति प्रेम का ही प्रदर्शन है। हमारा मूल स्वभाव प्रेम है, तो फिर हम विषाद में क्यों जी रहे हैं। विषाद का एक मात्र कारण जो मुझे दीखता है वो है, बाहर कि तरफ दौड़ना। हमारी सारी खोज बाहर कि है। हमें दुःख बाहर से मिलता है, हमे दुःख किसी और से मिलता है, और हम उस दुःख से मुक्त होने के लिए सुख ढूँढने लगते हैं, पर विडम्बना यह है ,कि , हम सुख कि दौड़ भी बाहर कि तरफ लगाते हैं, सुख भी तलाशने बाहर की और जाते हैं । और जो कुछ भी बाहर से मिलेगा वो अपना नहीं होगा , वो उधार का होगा किसी दुसरे का होगा।

प्रेम होना स्वाभाविक है, उसके लिए बोलने बताने या मार्गदर्शन करने कि जरुरत नहीं पड़ती है। प्रेम की भाषा ही नहीं होती कोई, उसके लिए क्योंकि शब्दों की ज़रूरत नहीं पड़ती, जहाँ शब्द काम नहीं देते तो आँखे काम दे जाती है, जहाँ आँखे काम नहीं देती वहां स्पर्श काम दे जाता है और जहाँ स्पर्श काम नहीं देता वहां ह्रदय की भावनाए काम कर जाती हैं। पर हर हाल में प्रेम घटता है। हर कोई अपने जीवन में प्रेम का आगमन देखता है। एक कथा याद आती है राबिया की, राबिया मुसलमान सूफी संतो की जमात में बड़ा ऊँचा ओहदा रखती हैं। राबिया ने एक बार कुरआन से एक अक्षर को काट दिया था, उसके खिलाफ मौलवी खड़े हो गए की तेरी इतनी जुर्रत। पर राबिया ने जो जवाब दिया वो बड़ा सुन्दर है, मैंने जहाँ जहाँ शैतान लिखा था वो काट दिया, क्योंकि जिस दिन से अल्लाह से मोहब्ब्बत हुई है, मुझे हर तरफ खुदा ही नज़र आता है, शैतान तो कहीं दिखता ही नहीं। यह प्रेम का मार्ग है। अद्वैत का सही अर्थ प्रेम में ही मिलता है। कबीर भी कहते हें " मैं था तब हरी नहीं, और हरी था तो मैं नाय, प्रेम गली अति सांकरी या में दो ना समय" प्रेम का पथ ही अद्वैत का पथ है। मैं स्थूल और सूक्ष्म प्रेम में बहुत ज्यादा अंतर नहीं देखता हूँ, बल्कि मैं आज के प्रेमियों को अपना आदर्श मानता हूँ। आज के प्रेमी जोड़े मुझे आध्यात्म की प्रेरणा देते हें। मैं जब ही पार्क में होटल में कॉलेज के बगीचों के झुरमुट के पास बैठे प्रेमियों को देखता हूँ तो मुझे प्रेरणा मिलती है, प्रेम ऐसे ही होता है। वो प्रेमी पूरी दुनिया को भूल कर एक दुसरे की आँख में आँख डाले बैठे होते हें, उनके पास से तूफ़ान भी गुज़र जाए तो उनको खबर नहीं लगती, ऐसा खो जाते हें वो एक दुसरे में, जैसे मानो गहरे ध्यान में चले गए हो। एक कथा याद आती है यहाँ, एक बादशाह नमाज पढ़ रहे होते हें, उसी वक्त एक प्रेमिका अपने प्रेमी के ध्यान में बेसुध जाते रहती है, अचानक उसका पैर बादशाह की दरी पर रखा जाता है, जिसमे बैठ कर वो नमाज़ पढ़ रहा होता है। बादशाह बिगड़ पड़ता है उस लड़की पर, की ऐ कमबख्त लड़की देख कर नहीं चलती ध्यान किधर है, मैं नमाज़ पढ़ रहा था, खुदा की इबादत में था। लड़की हंस पड़ती है, कहती है, हुजुर मैं तो अपने प्रेमी के खयालो में खोई हुई थी तो मुझे पता नहीं चला पर आप नमाज़ के नाम पर क्या कर रहे थे, अगर आप खुदा के खयालो में खोये होते तो कभी ना जान पाते की मेरा पैर आपकी दरी पे रखा गया। बादशाह बहुत शर्मिन्दा हो जाता है। बात है भी सच्ची और अर्थपूर्ण , अगर इबादत में ही डूबना है तो उस प्रेमिका की तरह डुबो की अपनी सुध बुध भी खो बैठो। प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए सारे ज़माने को दुश्मन मान बैठता है, उसको बर्दाश्त नहीं की कोई उसके प्रेम में बाधा बने, जो उसकी प्रेमिका को पसंद ना करे जो उसकी प्रेमिका के खिलाफ बोले वो उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। ऐसे में वो इंसान मुझे तुलसी बाबा का सबसे बड़ा चेला नज़र आता है, ' जाके प्रिय ना राम वैदेही, तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जदपि परम सनेही " मैं इस भौतिक प्रेम के पक्ष में कुछ नहीं कह रहा, मैं कहना यह चाहता हूँ की अज्ञात से प्रेम करना हो तो बिलकुल इसी तरह करना चाहिए। ऐसा ध्यान होना चाहिए की बाजू से तूफ़ान आ जाए तो भी हमें फर्क ना पड़े, भीतर इतना गहरे उतर जाएँ की बाहर का भान ही ना रहे।

दुनिया में इसलिए भक्ति कीर्तन प्रार्थना की परम्परा इतनी विकसित हो सकी क्योंकि उसके पीछे परमात्मा के प्रति प्रेम की भावना थी। ध्यान बहुत वैज्ञानिक और रुखा होता है, पर अगर इसमें प्रेम रस मिल जाए तो ध्यान भक्ति के कमल को खिला देता है। उसी तरह अगर प्रेम में भक्ति मिल जाए तो ध्यान का कमल खिलने में देर नहीं लगती है। प्रेम हमारा स्वभाव है, परन्तु वो आज विषाद बना हुआ है, क्योंकि हम आरम्भ गलत करते हें, शुरू खुद से करना है, पर हम शुरू दुसरे से शुरू करते हैं। सिर्फ सिर्फ पत्नी के दीवाने थे, पत्नी के प्रेम में पागल थे, पत्नी ने उलाहना दी और कहा की इतना प्रेम राम से किया होता तो क्या बात होती, बस तुलसी जाग गए। कुछ ऐसे ही हम सब सो रहे हैं, सदियों से जन्म जन्मान्तरो से हम प्रेम करते आये हैं, कभी अज्ञात के प्रति प्रेम प्यास बनकर उठा ही नहीं। अगर जान ले की इतने जन्मो से वही कर रहे हैं, बाहर की और यात्रा तो भी अन्दर जाने के प्रेरणा मिले, पर प्रेम की परिभाषा ही गलत कर दी साधुओ ने संतो ने। प्रेम सिर्फ प्रेम होता है, वो सिर्फ बरसना जानता है, वो भेद नहीं करता, दिक्कत इतनी ही है की कहाँ बरसे यह उसे नहीं पता। तुलसी की तरह हमें प्रेरित करने वाला कोई प्रेमी चाहिए, तुलसी को कोई और कहता तो उन्हें बात समझ नहीं आती।

बात सिर्फ़ इतनी है कि भौतिक प्रेम में उतरेंगे तो बाहर रह जाएँगे और वासना का उदय होगा, आंतरिक प्रेम में उतरेंगे तो भक्ति का उदय होगा । प्रेम वही है बस पात्र बदल जाते हैं, प्रेम के बिना आध्यात्म नीरस हो जाता है। मैं नहीं कहता की भगवान से प्रेम करो । मैं सिर्फ़ यह कहता हूँ कि खुद से प्रेम करो। जो भीतर होगा वही बाहर प्रतिबिंबित होगा। शुरूवात सदा से नकली से होती है, सीखने के लिए अक्चा है यह, पर अगर लक्ष्य याद रहे तो फिर विशुद्ध प्रेम में शाश्वत प्रेम में उतरने में वक्त नहीं लगेगा। भक्ति प्रेम का सबसे ऊँचा शिखर है। प्रेम से ही श्रद्धा का जन्म होता है, विश्वास का जन्म तो अहम से होता है. आज बस इतना फिर कभी इस विषय पर .

प्रेम ततसत

1 comment:

  1. Prem ka vishudhha rup hai bhakti..........................anand aa gaya.............jai gurumaharaj ki jai

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