Thursday, September 29, 2011

नवरात्र का साधनात्मक पक्ष

नवरात्र का पर्व मूल रूप से मिलन की आराधना का पर्व है, संधिकाल के सदुपयोग का पर्व है। जब भी दो ऋतुओं का मिलन होता है, तब नवरात्र का पर्व मनाया जाता है। हमारे शास्त्रों ने चार ऋतुएँ और चार नवरात्र का उल्लेख किया है।दो गुप्त नवरात्र और दो प्रगट नवरात्र। हमेशा याद रखिये मिलन चाहे दिन और रात का हो अथवा रात और दिन का, नदी और सागर का मिलन हो या धरती और अम्बर का, मिलन के समय वातावरण शांत सुरम्य और आल्हाद से परिपूर्ण होता है। मिलन के काल में एनी सभी क्रियाएं मौन होकर साक्षी भाव से देखने का कार्य करती है। आपने गंगा सागर देखा है कभी, गंगा जितनी तीव्र गति से सागर की तरफ दौड़ती है उसके पास पहुँचते पहुंचे वो शांत धीर गंभीर लज्जा से परिपूर्ण हो जाती है, मानो की एक नयी दुल्हन अपने प्रियतम से प्रथम मिलन को जा रही हो। नवरात्र के पर्व में भी जब दो ऋतुओं का मिलन होता है तो प्रकृति शांत सहज और सुगम हो जाती है, इस अवसर पर अगर हम थोडा सा भी प्रकृतिस्थ होने का प्रयास करें खुद में, तो हम खुद के और प्रकृति के ही नहीं, बल्कि परा प्रकृति के रहस्यों को भी समझने में सक्षम हो सकते हैं। यह सर्वोत्तम अवसर होता है अपने मन को मन में रखने का, यह अवसर होता है, अपने शरीर को आने वाली ऋतू के अनूकुल बनाने का। आप गौर करिए जैसी ऋतू आती है वैसे ही फल आने लगते हैं, गर्मी में आम जो गर्मी ही पैदा करता है खाने से, सर्दियों में अमरुद, सीताफल आते हैं जो खाने से शरीर में ठण्ड पैदा करते हैं। अजीब बात है पर सत्य है, प्रकृति चाहती है की आप इन ऋतू फलो का सेवन करे और अपने शरीर को आने वाली ऋतू के हिसाब से ढाल लें। इन फलो का सेवन आपको उस ऋतू के काल में होने वाले संक्रमणों से बचा लेता है। साथ ही नवरात्र पर्व में हम स्वल्पाहाल अथवा अल्पाहार लेकर अपनी जठराग्नि को विश्राम देते हैं और साथ ही उसे शक्ति प्रदान करते हैं ताकि वो आने वाली ऋतू के हिसाब से तैयार हो जाए। ऋतू परिवर्तन के काल में उपवास करने से आपका शरीर विभिन्न संक्रमणों से बचा रहता है। उपवास का एक अर्थ होता है उप + वास अर्थात समीप बैठना या एक पद निचे बैठना। उपवास संग उपासना अर्थात उप+आसन । यही नवरात्र के आराधना का रहस्य है।
नवरात्र के प्रथम तीन दिन हम महाकाली की आराधना करते हैं, जो संहार का प्रतीक है, काली अर्थात वो शक्ति जो हमारे भय, मोह, काम, आदि आठ पाशो से हमें मुक्त करती है। कलुषित मानसिकता का नाश कर हमें शुभ की प्रेरणा देती है। संहार के बाद ही संतति होती है, मृत्यु के पश्चात जन्म, विध्वंस के बाद निर्माण। दुसरे चरण के तीन दिनों में हम पालनी शक्ति महालक्ष्मी की आराधना होती है। हमारे भीतर नवीन विचारों को जन्म देकर शुभ का उदय होता है। तत्पश्चात अंतिम तीन दिनों में हम महासरस्वती की आराधना करते हैं, अर्थात वागीश्वरी जो हमें अच्छी मेधा अच्छी वाणी और अच्छी मानसिकता से भर देती है। नवरात्र के दसवे दिन हम अपराजिता की साधना करते हैं ताकि हम हमेशा आठ पाशों से अपराजित रहें। स्वयं में स्थिरता को प्राप्त करें स्वयं को प्राप्त करें।
प्रेम तत्सत

Thursday, September 15, 2011

अनहद बाजा अंतर बाजे

' जागते हुए नींद में प्रवेश करने का प्रयास आपको उन्मुनी के दर्शन करवा सकता है '

' हम जब भी नींद में प्रवेश करते हैं तो अपने साथ कुछ मेहमानों को भी ले जाते हैं । दिनभर का गुना भाग व्यापार प्यार तकरार समाचार और जाने क्या क्या , और हमारे यह मेहमान चुपके से हमारे अवचेतन के कमरे के स्थाई सदस्य बन जाते हैं, अगर हम नींद में अकेले प्रवेश करे तो आपकी मुलाक़ात अवचेतन से हो सकेगी'

' नींद में जाने के पहले ही हम विचारों के आगोश में चले जाते हैं, नींद के पहले ही हम नींद में आ जाते हैं, अगर कहूँ कि बेहोशी में आ जाते हैं तो गलत नहीं होगा, अरे नींद के मंदिर में जागते हुए प्रवेश करिए, आपकी मुलाकात उस से हो जायेगी जो आपकी नींद में भी जागता रहता है'

' नींद की बगिया में स्वप्न के फूल खिलते हैं, बस आप संदेह के साथ उस फूल की सुगंधी लेने जाइए आप अंतर्जगत में प्रवेश कर जायेंगे, शायद ही कोई होगा जिसने स्वप्न में कभी संदेह किया होगा, आप करके देखिये'

' खुली आँखों से जगत दीखता है बंद आँखों से अंतर जगत, बंद आँखों से निद्रा में बहुत प्रवेश किया एक बार खुली आँखों से विश्राम में जाने की कोशिश करिए'

' जब तक आप जगत से जुड़े हैं, तब तक आप सुषुप्तावस्था में हैं, जैसे ही आप जगत से अलग होंगे, आप जाग जायेंगे, जगत आपको जागत तक नहीं पहुँचने देता'

Friday, August 19, 2011

"इश्वर से भय इश्वर के प्रति पाप है "

ईश्वर से प्रेम ही आस्तिकता है, प्रेम उसी से होता है, जिसके होने कि संभावना होती है, बाहर नहीं तो भीतर ही सही। प्रेम अपने आप में एक घोषणा है, प्रियतम के होने कि उसके अस्तित्व को स्वीकारने की भय नकारात्मक है प्रेम विधायक।
















Sunday, May 8, 2011

माँ तुझे प्रणाम - परा प्रकृति की प्रतिकृति को नमन।

पश्चिमी देशो ने इस देश को बहुत कुछ अच्छा और बहुत कुछ बुरा दिया है, इसाइयत ने हमें रविवार की छुट्टी का उपहार दिया तो साथ ही साथ मदर्स डे के रूप में एक दिन जब वो अपनी आदरांजलि अपनी माँ को अर्पित कर सके। वैसे तो सातों दिन माँ के ही होते हैं, दिन की शुरुवात भी माँ से और अंत भी माँ से होता है। आदिकाल से ऋषियों महर्षियों ने कहा कि सृष्टि का आरम्भ नाद से हुआ, नाद अर्थात शब्द मनीषियों ने इसे शब्द ब्रम्ह कहा है। वो कहते हैं कि जिस शब्द से सृष्टि का निर्माण हुआ है वो ॐ है, परन्तु मेरा सोचने का ढंग कुछ अलग है, मेरे गुरुदेव ने मुझे हमेशा सिखाया है, कि सृष्टि के सारे रहस्य आपके जीवन से जुड़े हैं, अपने आपको, अपने आस पास के वातावरण को घटने वाली चीजों को देखोगे तो सृष्टि और परमात्मा के रहस्य को भी समझ जाओगे। कहा भी गया है, " यथा पिंडे तथा ब्रम्हांडे" उसी तरह मैंने यह समझा कि आध्यात्म हमारे आस पास हमारे दैनिक दैनिंदनी में ही छुपा हुआ है। इसी सोच के दायरे में रहकर एक विचार ने अभ्यंतर में दस्तक दी, कि सृष्टि का आरम्भ शब्द से हुआ है, तो वो शब्द निश्चित रूप से हम सबके जीवन से जुड़ा होगा। फिर मैंने सोचा ऐसा कौन सा शब्द है जो बच्चा बिना बताये ही बोल देता है, जो पहला शब्द बच्चे के मुख से निकलता है वो होता है- माँ । मैं निश्चित रूप से कह सकता हूँ सृष्टि का आरम्भ भी इसी शब्द से हुआ है। गुरुदेव कहते हैं कि जब हमारी माँ के दो हाथ दो पैर हैं तो जगत कि माँ भी हमारी माँ से अलग नहीं होगी, उसके दस हाथ दस सर नहीं हो सकते, वो तो कल्पना है। माँ वो शब्द है जो हमें तब याद आता है जब हमें एक छाँव कि ज़रूरत महसूस होती है, जब हमें सुकून कि ज़रूरत होती है। सोचिये जब आप किसी चीज़ से भयभीत जाते हैं या अचानक कोई आपके सामने आ जाए तो मुह से निकलता है- बाप रे। पर जब हमें चोट लगती है या हम दर्द या तकलीफ में होते हैं तो हमारे मुख से निकलता है- माँ। आज के दिन इस सुकून भरी छांव को नमन, उस ममता के आँचल को नमन.

Tuesday, March 8, 2011

अपनी बात अपने साथ.

" याद रखो दुनिया को, दुनियादारी को हम पकड़ते हैं, दुनिया या दुनियादारी हमको नहीं पकडती है"

" मोह ना बचे तो आत्मा शरीर को त्यागने का उद्यम करने लगती है, मोह ही आत्मा और प्राण को शरीर से बांधकर रखता है"

" किसी भी चीज़ से भागो मत, किसी भी चीज़ को त्यागो मत, उस चीज़ से ऊपर उठो"

" प्रेम का अर्थ होता है, पर अर्थात दुसरे में अहम् का समर्पण। किसी और में अपने मैं को विलीन कर देना ही प्रेम है"

" विचार उस पार पहुंचाने की कश्ती है, जिसे किनारे पहुंचकर त्यागना पड़ता है, अगर पकडे रहोगे तो एक दिन किनारे पर ही डूब जाओगे"

"निर्विचार की यात्रा विचार से ही आरम्भ होती है, निराकार की यात्रा आकार याने आकृति से ही आरम्भ होती है, निर्विकार की यात्रा विकार से ही आरम्भ होती है"

" उसकी इच्छा और कृपा के बिना उसे कोई नहीं जान सकता है, अपनी इच्छा और कृपा के बिना अपने को भी नहीं जाना जा सकता है"

" भागो मत, त्यागो मत, भागोगे तो वो चीज़ और पीछा करेगी, त्यागोगे तो उस चीज़ का मोह और जोर से जकड लेगा, ना भागो ना त्यागो बस जागो , जागो ,जागो। "

प्रेम तत्सत

Saturday, March 5, 2011

उत्तिष्ठ जाग्रतः : जागो और पा लो जिसे पहले ही पा चुके हो.

प्रिय मित्रों,
सदियों से सब कहते आ रहे हैं, फिर भी मैं आज उस बात को दोहराने का प्रयास कर रहा हूँ। जागो मेरे प्यारो। एक जागृत पुरुष के पास बैठ कर, मैंने जो प्रकाश पाया है, मैं चाहता हूँ सब वो पायें। मैं आह्वान कर रहा हूँ आओ और जानो खुद को आओ और उस परदे को हटाओ जिसने तुम्हारी भगवत्ता को ढांक लिया है। हम सब उस अज्ञात के अंश हैं, दिक्कत इतनी ही है कि, हम यह जान कर भी अनजान हैं। सबसे बड़ी समस्या है कि समंदर हमारे पास है, पर भीतर प्यास ही नहीं उठती है। जब एक जागृत पुरुष के पास आप जाते हैं, तब आपके भीतर भी एक प्यास कि याद उमड़ती है, सारा आध्यात्म इसी प्यास को जगाने कि जुगत है। एक बार अभीप्सा जाग गयी तो अमृत भी दूर नहीं है। मैंने उस प्रकाश उस प्यास के दर्शन किये हैं अपने गुरुदेव के सानिध्य में, और चाहता हूँ कि आप सब में उस प्यास का स्फुरण हो। कब तक सोये पड़े रहोगे पागलों, अब वक्त आ गया पागल होने का, पागल याने पा गल अथात जो पाने कि जिद में गल गया, जिसका अहंकार गल गया उसने पा लिया, जो पा गया और समंदर में मिल गया याने पा कर गल गया। एक सद्गुरु एक जागृत पुरुष एक सिद्ध और कुछ नहीं करता आप बस उसके पास बैठ जाएँ और उसके भीतर कि शान्ति और प्रकाश की एक झलक पा सके तो आपके जीवन में भी उस अज्ञात के प्रति आकांक्षा जाग जायेगी। कुछ नहीं करना है बस जागना है, सबकुछ मिला हुआ है, सबकुछ आपके भीतर है, बस उसके प्रति जो उदासीनता है उसको ख़त्म करना है। तुम वही हो, आओ और अमृत के समंदर में एक छलांग लगा लो। एक जागृत व्यक्ति का सानिध्य कितना प्रीतिकर होता है, इसका अनुभव कर लो। उसके भीतर के प्रकाश को देख कर शायद तुम्हे अपने भीतर के प्रकाश की याद आ जाए। कब तक सोये पड़े रहोगे अब तो जागो। तुम्हे कुछ पाना नहीं है, तुम पहले से ही सबकुछ लेकर आये हो, बस उसे जान लो तो जीवन शांति आनंद और अमृत से भर जाएगा।
अघोरान्ना पारो मंत्रो नास्ति तत्वं गुरो परम
प्रेम तत्सत

Monday, February 28, 2011

अनहद बाजा अंतर बाजे

" प्रार्थना हर धर्म हर जात हर सम्प्रदाय में समान रूप से स्वीकारी गयी है। सभी धर्मो ने प्रार्थना को किसी ना किसी रूप में अपनाया है। इसाई धर्म का तो आधार ही प्रार्थना है। प्रार्थना पर अर्थ से जुडी भावना का नाम है, इसके विपरीत याचना स्वार्थ से जुडी भावना का नाम है। पर अर्थ अर्थात दुसरे के हित के लिए दुसरे के अर्थ के लिए किया गया निवेदन प्रार्थना है, और खुद के अर्थ याने स्वार्थ स्व अर्थ से की गयी प्रार्थना भी याचना से ज्यादा कुछ नहीं होती है। प्रार्थना का अर्थ स्वयं के लिए परमात्मा के प्रति आभार से ज्यादा कुछ नहीं हो सकता, प्रार्थना गहरे में परमात्मा से संवाद है , संवाद वहीँ संभव है जहाँ याचना या निवेदन की संभावना ना हो। क्योंकि संवाद दो समान स्टार के व्यक्तियों के बीच होता है, जबकि निवेदन या याचना में एक छोटा और दूसरा बड़ा होता है। हम परमात्मा से तब तक दूर रहते हैं जब तक हम उसे बड़ा मानते हैं, खुद को दीन हीन समझते हैं। अगर आप परमात्मा की संतान हैं तो दीन हीन होने का प्रश्न ही कहाँ। प्रार्थना भीतर का विषय है, मौन में घटने वाली स्थिति है, मन और वाणी का सायुज्य होने पर प्रार्थना का आरम्भ होता है। प्रार्थना में पर हित की भावना की प्रधानता होती है "

" भय से भागे नहीं उसका निरिक्षण करें , उसके साथ हो लीजिये, भय से एकाग्रता बढती है, भय का पाश बहुत से बन्धनों से मुक्त करने में सक्षम है।"

" ध्यान जाप से ऊर्जा उत्पन्न होती है, जो अंतर की गन्दगी को बाहर फेंकती है, यह गन्दगी क्रोध, मौन, झुंझलाहट हास्य, रुदन आदि विभिन्न रूप धारण कर लेती है। "

" गुरु व्यर्थ के उपदेश देने की जगह व्यवहार और आचरण से सिखाता है, संभव है की वो कटु वचन और व्यवहार भी प्रस्तुत कर दे, परन्तु यह उसका तरीका है। "

" अभ्यास करते रहिये गलतियां सुधरेंगी और आप उस कला में पारंगत हो जायेंगे, अभ्यास नवीन गुर भी दे जाता है, वो गुर जिनसे दुसरे लोग भी दिशा प्राप्त कर सकते हैं।"

" जाप से स्वतः अंतर्मुखी हो जाता है व्यक्ति, विषयो के प्रति पहले अति उत्साहित और फिर अति उदासीन हो जाता है, राजयोग इसे प्रत्याहार कहता है, यह सब स्वतः घटेगा इसके लिए प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है।"

प्रेम तत्सत